यह भी कहा जा रहा है कि अगर निष्पक्ष चुनाव होते तो पीटीआइ समर्थक निर्दलीय और सीटें जीत सकते थे। पाकिस्तान के राजनीतिक और धार्मिक संगठनों के अलावा अमरीका, ब्रिटेन के साथ यूरोपीय संघ ने भी चुनाव पर सवाल खड़े किए हैं। यूरोपीय संघ ने बयान में कहा कि चुनाव में सभी पार्टियों को बराबर का मौका नहीं दिया गया। यह पाकिस्तान के लोकतंत्र के लिए चिंता की बात है। अमरीका और ब्रिटेन ने भी कहा है कि अगर पार्टियां चुनाव में दखल और कार्यकर्ताओं के दमन के दावे कर रही हैं तो अनियमितताओं और धांधली की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। धांधली के आरोपों को लेकर पाकिस्तान के चुनाव आयोग के साथ वहां की सेना को भी कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। सेना पर्दे के पीछे नवाज शरीफ की पार्टी का समर्थन कर रही थी। खंडित जनादेश के बाद सेना का पीटीआइ के निर्दलीयों के बगैर गठबंधन सरकार बनाने की अपील करने से फिर साफ हो गया कि फिलहाल पाकिस्तान में लोकतंत्र को सेना से मुक्त रखना दिवा-स्वप्न ही है। चुनाव नतीजों ने आर्थिक बदहाली झेल रहे पाकिस्तान में मजबूत व स्थिर सरकार की संभावनाओं पर सवालिया निशान लगा दिया है। वहां कोई प्रधानमंत्री अब तक पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सका।
सत्ता के लिए गठजोड़ करने वाली अलग-अलग विचारधाराओं वाली पार्टियों का साथ कितनी दूर और देर तक कायम रहेगा, यह वक्त की मुट्ठी में बंद है। पाकिस्तान का ताजा घटनाक्रम भारत के लिए इस लिहाज से अहम है कि वहां की नई सरकार हमारे साथ द्विपक्षीय संबंधों को लेकर क्या रुख अपनाती है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटने के बाद 2019 में भारत से द्विपक्षीय संबंध निलंबित करने का पाकिस्तान को कितना खमियाजा भुगतना पड़ा, यह हिसाब-किताब भी नई सरकार को करना है।