जब माझी ही नैया डुबोए तो उसे कौन बचाए…? यह पंक्ति मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पर सटीक बैठती है। जिस पर पर्यावरण रक्षा का जिम्मा हो। जिसे प्रदूषण रोकने के लिए हर जतन करना हो, वही अगर निगरानी में कोताही करे और उसके लिए निर्धारित फंड को इधर-उधर कर दे। उसे पर्यावरण सुधार के इतर खर्च करने लगे तो उसे दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जाए…। हुआ ये है कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की बड़ी गफलत सामने आई है। उसने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के निर्देश पर जुर्माने की बड़ी राशि वूसली। यह पांच साल में 20 करोड़ रुपए से अधिक बताई जाती है। आमतौर पर इस राशि को पर्यावरण रक्षण के साथ हरियाली का विस्तार, जागरूकता अभियान, हवा की शुद्धता बढ़ाने जैसे तमाम उपायों पर खर्च करना होता है, लेकिन वाह रे अफसरान…! आपका कोई जवाब नहीं। फंड अधिकांश हिस्सा समिति सदस्यों के मानदेय पर खर्च कर दिया गया। महज एक प्रतिशत ही प्रदूषण नियंत्रण के अपने मूल ध्येय पर लगाया गया। इस मामले में राजस्थान बोर्ड ने आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है। वहां इस राशि का 83 फीसदी से अधिक पर्यावरण गतिविधियों पर इस्तेमाल हुआ। मसलन स्टेट हाइवे पर पौधरोपण और पेड़ों पर धूल जमाव का नियंत्रित किया गया। इसके जरिए हवा की गुणवत्ता बढ़ाने और ध्वनि प्रदूषण को कम करने जैसे अहम उपायों को लागू करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पड़ोस में छत्तीसगढ़ ने भी इस दिशा में उल्लेखनीय काम किया है। इधर, जिलों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का हाल भी बहुत बुरा है। रसूख वाले लोग पर्यावरण नियमों की आए दिन धज्जियां उड़ा रहे हैं। शहरों में माफिया ग्रीन बेल्ट तबाह कर रहा है। तालाबों को तेजी से अवैध कब्जे लील रहे हैं। उन पर बेरोक-टोक मकान-दुकान-दफ्तर तेजी निर्मित हो रहे हैं। सीवरेज ट्रीटमेंट प्रक्रिया की घोर अनदेखी हो रही है। प्रदूषित पानी छोडऩे से नदियां मर रही हैं, लेकिन बोर्ड के अफसरों को यह सब नजर नहीं आता। कभी-कभार खानापूर्ति के रूप में एक्शन मोड दिख जाते हैं। लेकिन बाद में वही ढाक के तीन पात की तरह हालात बने रहते हैं। पर्यावरण हम सबकी चिंता है। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से दुनिया पीडि़त है। पीढिय़ों पर मंडरा रहे संकट से छोटे-छोटे लेकिन साझा प्रयासों से बड़ी कामयाबी निश्चित मिल सकती है, जैसे इंदौर ने जनशक्ति के दम पर खुद को स्वच्छता का ब्रांड स्थापित करके साबित किया है। -गोविंद ठाकरे, govind.thakre@in.patrika.com