2024 का लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय न होकर क्षेत्रीय होकर रह गया है। पूरे देश में इसका एकसार आकलन नहीं किया जा सकता। नॉर्थ-साउथ डिवाइड स्पष्ट है। पूर्वी भारत एक पहेली है। उत्तर व पश्चिम में भी लगभग स्पष्टता है। मोदी का जलवा भले ही कमजोर हुआ हो, लेकिन उनकी क्षमता पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगा सकता। राहुल गांधी का कद पहले से थोड़ा बढ़ा, लेकिन इतना नहीं कि वे मोदी की बराबरी कर सकें। बाकी क्षेत्रीय नेताओं की पहुंच अपने-अपने राज्यों तक सीमित रही, वहां उनमें दम भी दिखा।
भाजपा और संघ : इस बार के चुनावों में एक बात और गौर करने लायक हुई। भाजपा कार्यकर्ताओं की बेरुखी, कुछ सीमा तक बेबसी भी। खासकर भाजपा का कार्यकर्ता मैदान से नदारद रहा। हालांकि सोशल मीडिया पर उसने अपनी उपस्थिति खूब दर्ज कराई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भी अपनी निजी हैसियत से तो दिखे, लेकिन संघ की योजना से नहीं।
ईडी-सीबीआई में उलझे रहे क्षेत्रीय नेता :
क्षेत्रीय दलों के कार्यकर्ताओं में जोश पर्याप्त था, लेकिन उनके नेता ईडी व सीबीआई के झंझटों से निपटने में ज्यादा लगे रहे। यह भाजपा की रणनीति का हिस्सा भी था और वह इसमें काफी हद तक सफल भी रही। बिखराव के बावजूद विपक्षी एकता का प्रपंच अंत तक बना रहा। कांग्रेस व आप का दिल्ली में गठबंधन था, लेकिन दोनों के कितने वोट आपस में ट्रांसफर हुए, यह यक्ष प्रश्न है। दोनों के कार्यकर्ताओं के दिल तो आपस में बिल्कुल नहीं मिले, यह बात जाहिर थी। पंजाब में भी दोनों के बीच नूरा कुश्ती हुई। यूपी-बिहार में कांग्रेस, सपा, राजद में गठबंधन का धर्म निभता हुआ दिखा। तमिलनाडु में कांग्रेस व डीएमके की दोस्ती जम कर चली। बंगाल में स्थानीय स्तर पर जबरदस्त तकरार बरकरार थी, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन का नाम बना रहा। जमीन पर तो इसका असर अभी देखना बाकी है, लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव चुनाव विश्लेषकों के दिलो-दिमाग पर अवष्य छाया रहा।
दिल्ली के दिल में क्या है?
दिल्ली को देश का दिल माना जाता है। राजनीतिक दृष्टि से भी यहां की नब्ज कई बार देश की सेहत का अंदाजा भी दे देती है। इस नब्ज से तो लगा कि विपक्ष में अभी भी दम है। देश के अल्पसंख्यक और दलित वर्ग अभी भी भाजपा से दूर हैं। अन्य प्रदेशों में वनवासी भी इस बार भाजपा से छिटके। किसान आंदोलन के समय भाजपा से दूरी बनाने वाला एक बड़ा समुदाय देशभर में भाजपा से अभी भी नाराज दिखा। भाजपा ने अगर बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक से ध्रुवीकरण करने की कोशिश की, तो विपक्ष ने जातिवाद का कार्ड चला। विकास का मुद्दा बहुत पीछे छूट गया।