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Birsa Munda Jayanti: उलगुलान आंदोलन के जनक बिरसा मुंडा ने अंगारों पर चलकर पाया आदिवासी समाज में भगवान का दर्जा

Birsa Munda History in Hindi: आज बिरसा मुंडा की जयंती मनाई जा रही है। बिरसा ने धर्म के नाम पर अविश्वास फैलाने, सामंती और जमींदारी प्रथा से और अंग्रेजी सरकार से लोहा लिया। आइए देश की आजादी के लिए लड़ने वाले धरती आबा यानी बिरसा मुंडा के योगदान के बारे में चंद बातें…

Nov 15, 2023 / 07:09 pm

स्वतंत्र मिश्र

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Ulgulan history in hindi: झारखंड जो पहले बिहार का हिस्सा हुआ करता था उसे इतिहास में सम्मान दिलाने वाले महापुरुष कौन थे? वह आदिवासी पुत्र कौन थे जिनकी आज जयंती मनाई जा रही है। उस इतिहास पुरुष का नाम बिरसा मुंडा है। कौन है बिरसा मुंडा जो न सिर्फ आदिवासियों के लिए बल्कि भारतीयों के लिए गौरव की बात बन गए। आदिवासी अस्मिता के आधार पर 23 साल पूर्व बिहार से झारखंड को अलग राज्य का का दर्जा दिया गया। आज झारखंड राज्य की स्थापना दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिरसा मुंडा के गांव उलिहातु पहुंचे। यहां उन्होंने 4 अमृत स्तंभों को और मजबूत करने की बात कही। नरेंद्र मोदी ने ‘पीएम जनजातीय आदिवासी न्याय महाअभियान की शुरुआत की। उन्होंने झारखंड के खूंटी में जनजातीय गौरव दिवस कार्यक्रम में भाग लिया। कार्यक्रम के दौरान पीएम ने ‘विकसित भारत संकल्प यात्रा’ का आगाज किया। प्रधानमंत्री मोदी उलिहातु पहुंचने वाले देश के पहले पीएम बन गए। इस अवसर पर झारखंड के मुख्यमंत्री से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक कई योजनाओं को लागू करने की बात कही। आखिर बिरसा मुंडा ने ऐसा क्या किया वह आदिवासियों के भगवान और भारत के लिए गौरव की बात बन गए। आइए जानते हैं इस वीर पुरुष के बारे में कुछ जरूरी बातें।

स्कूली दिनों में दिखने लगे थे बिरसा के तेवर

बिरसा मुंडा को लोग धरती आबा के नाम से भी जानते हैं। बिरसा मुंडा का जन्म 1857 के दो दशक बाद यानी 15 नवंबर 1875 में खूंटी के उलिहातू में हुआ था। बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा चाईबासा के जर्मनी के मिशनरी स्कूल में हुई। पढ़ाई के दौरान ही बिरसा की क्रांतिकारी तेवर का पता चलने लगा था। उन दिनों झारखंड तत्कालीन बिहार में सरदार आंदोलन भी चल रहा था। यह आंदोलन अंग्रेज सरकार और मिशनरियों के खिलाफ चलाया जा रहा था। सरदारों के कहने पर ही मिशन स्कूल से बिरसा मुंडा का नाम काट दिया गया। 1890 में बिरसा और उसके परिवार ने भी चाईबासा छोड़ दिया और जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता भी छोड़ दी।

बिरसा ने धार्मिक कट्टरता के खिलाफ लिया था मोर्चा

बिरसा ने जर्मन मिशन की सदस्यता त्यागकर रोमन कैथोलिक धर्म स्वीकार किया लेकिन कुछ समय के बादबिरसा को ईसाई धर्म से भी अरुचि हो गई। वह सन् 1891 में बंदगांव के आनंद पांड़ के संपर्क में आए। आनंद स्वांसी जाति के थे और गैरमुंडा जमींदार जगमोहन सिंह के यहां मुंशी का काम करते थे। आनंद रामायण-महाभारत के अच्छे ज्ञाता थे और उनकी समाज में काफी आदर था। बिरसा को आनंद और उनके भाई सुखनाथ पांड के साथ समय बिताना अच्छा लगने लगा। एक दिन खबर आई कि सरकार ने पोड़ाहाट को सुरक्षित वन घोषित कर दिया। सरकार के इस कदम से आदिवासी समाज में काफी उबाल का माहौल पैदा गया। वे सरकार के खिलाफ आंदोलन करने लगे। हालांकि इस आंदोलन की रफ्तार काफी मद्धिम थी। आनंद ने बिरसा को सरकार के खिलाफ चल रहे आंदोलन में भाग लेने को कहा लेकिन उस समय उन्होंने उनकी बात नहीं सुनी। लेकिन कुछ समय के बीत जाने के बाद बिरसा भी इस आंदोलन में कूद गए और खुद को उन्होंने धरती आबा नाम दिया। बिरसा को आगे चलकर उनके अनुयायी भी धरती के पिता यानी धरती आबा ही पुकारने लगे।

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धरती आबा ने कहा- सरकार का अंत हो गया

उन्हें खुद को धरती आबा पुकारा जाने इतना अच्छा लगने लगा कि उन्होंने अपनी मां को भी बेटा पुकारने पर टोका और कहा कि मैं धरती आबा हूं और अब मुझे इसी नाम से बुलाया करो। मुंडा आदिवासी समाज में बिरसा की प्रतिष्ठा धार्मिक गुरु के रूप में बन चुकी थी। इस बीच पहली बार अंग्रेजों ने उन्हें 1895 में गिरफ्तार कर लिया और दो साल बाद रिहाई दी। जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने धार्मिक आंदोलन को भूमि सुधार और राजनीतिक आंदोलन में तब्दील कर दिया। बिरसा ने 6 अगस्त 1895 को यह घोषणा कर दी कि सरकार का अंत हो गया और जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों का राज होगा। इस घोषणा के बाद अंग्रेज सरकार ने बिरसा को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया।

बिरसा ने वन सम्बंधी बकाए की माफी के लिए अंग्रेजी सरकार के साथ सभी लोकतांत्रिक प्रयत्न किए लेकिन ब्रतानिया सरकार ने उनकी एक नहीं सुनी बल्कि उनकी और उनके अनुयायियों की धर-पकड़ में जी-जान से जुट गई।बिरसा ने अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ बगावत का ऐलान कर दिया। 9 अगस्त, 1895 को चलकद में पहली बार बिरसा को गिरफ्तार करने की कोशिश की गयी। उन्हें गिरफ्तार कर भी लिया गया लेकिन उनके अनुयायियों ने उन्हें छुड़ा लिया। उसके बाद से आंदोलन की दिशा ही बदल गई। 16 अगस्त 1895 को गिरफ्तार करने की योजना के साथ आए पुलिस बल को बिरसा के नेतृत्व में उनके संगठन ने सुनियोजित तरीके से घेर लिया। किसी को मारा नहीं गया लेकिन बिरसा के करीब 900 अनुयायियों ने पुलिस बल को खदेड़ दिया।

बिरसा के नेतृत्व में हुआ था उलगुलान आंदोलन

बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 1889-1900 में मुंडाओं का सबसे चचिर्त आंदोलन हुआ। इसे उलगुलान आंदोलन के नाम से जाना जाता है। उलगुलान का मतलब महाविद्रोह होता है। यह विद्रोह सामंती व्यवस्था, जमींदारी प्रथा और अंग्रेजी सरकार के खिलाफ था। बिरसा ने मुंडाओ को जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए बलिदान देने के लिए प्रेरित किया। बिरसा मुंडा का पूरा आंदोलन 1895 से लेकर 1900 तक चला। इसमें भी 1899 दिसंबर के अंतिम सप्ताह से लेकर जनवरी के अंत तक काफी तीव्र रहा। उनकी पहली गिरफ्तारी अगस्त 1895 में बंदगांव से हुई। उनकी यह गिरफ्तारी किसी आंदोलन की वजह से नहीं हुई थी बल्कि अंग्रेजी सरकार यह नहीं चाहती थी कि किसी भी तरह से भीड़ एकत्रित हो। अंग्रेजी सरकार ने रात में सो रहे बिरसा को बहुत चालाकी से गिरफ्तार किया। बिरसा और उनके साथियों को दो साल की सजा हुई।

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अपने साथियों के लिए तोड़ा अंग्रेजी सरकार से किया वादा

बिरसा को रांची जेल से हजारीबाग जेल भेज दिया गया। 30 नवंबर 1897 को उसे जेल से रिहा कर दिया गया। उसे पुलिस चलकद लेकर आई और इस चेतावनी के साथ रिहाई दी कि वह आंदोलनों में शिरकत नहीं करेंगे। बिरसा ने भी ब्रिटिश सरकार से यह वादा किया कि वह आंदोलनों से खुद को दूर रखेंगे लेकिन उनके अनुयायियों और मुंडा समाज की विषम परिस्थियों को देखते हुए वह अपने वादे पर कायम नहीं रह सके। वह फिर से आंदोलन की जमीन तैयार करने में सक्रिय हो गए। सरदार आंदोलन के सहयोगी भी बिरसा के साथ हो लिए। बिरसा ने बगावत की जमीन तैयार करने के लिए पैतृक स्थानों की यात्राएं कीं। इन यात्राओं में ***** मंदिर और जगन्नाथ मंदिर भी शामिल था। अलग-अलग इलाकों में गुप्त बैठकों का दौर भी शुरू हो गया। सघन स्तर पर रणनीतियां बनने लगीं। बसिया, कोलेबिरा, लोहरदगा, बानो, कर्रा, खूंटी, तमाड़, बुंडू, सोनाहातू और सिंहभूम का पोड़ाहाट का इलाका नारों की अनुगूंज से थर्रा उठा।
बिरसा ने अंधविश्वास पर जमकर हमला बोला

बिरसा ने मुंडा समाज को बतया कि ईसाई पादरी किस कदर अंधविश्वास फैला रहे हैं। बिरसा मुंडा की यह बातें लोगों को समझ में आ रही थी और वह सभी बिरसा के साथ होते चले गए। इस एकजुटता की खबर पुलिस को भी हो रही थी और यही वजह है कि पुलिस उनके साथ उनके अनुयायियों पर भी नजर रखने लगी थी। अंग्रेजी सरकार ने बिरसा और उनके साथियों के पीछे मुखबिर तैनात कर दिया कि वह कब कहां बैठकें करते हैं, इसका पता लगाओ। लेकिन बिरसा अंग्रेजी सरकार को चकमा देने में हर बार सफल होती। बिरसा और उनके अनुयायियों के लिए सबसे बड़े दुश्मन चर्च, मिशनरी और जमींदार थे। यही वजह है कि बिरसा ने जमींदारों और पुलिस का अत्याचार के खिलाफ एक नया नारा गढ़ा गया-‘अबुआ दिशुम, अबुआ राज’ जिसका मतलब है कि अपना देश-अपना राज। बिरसा ने जब अंतिम युद्ध की तैयारी शुरू हुई तो सबसे पहले निशाना चर्च को ही बनाया गया। इसके लिए क्रिसमस की पूर्व संध्या को हमले के लिए चुना गया।
चर्चों पर बिरसा के नेतृत्व में बरसाए गए तीर

24 दिसंबर 1899 से लेकर बिरसा की गिरफ्तारी तक रांची, खूंटी, सिंहभूम का पूरा इलाका ही विद्रोह से दहक उठा था। इसका केंद्र खूंटी था। इस विद्रोह का उद्देश्य भी चर्च को धमकाना था कि वह लोगों को बरगलाना छोड़ दे लेकिन वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे थे। यही वजह है कि उनके नेतृत्व में 24 दिसंबर 1899 की संध्या चक्रधरपुर, खूंटी, कर्रा, तोरपा, तमाड़ और गुमला का बसिया थाना क्षेत्रों में चर्च पर जोरदार तरीके से हमला बोला। बिरसा मुंडा के गांव उलिहातू के गिरजाघर पर भी तीर चलाए गए। सरवदा चर्च के गोदाम में आग लगा दी गई। इसके बाद चर्च से बाहर निकले फादर हाफमैन व उनके एक साथी पर तीरों से बारिश की गई। हाफमैन तो बच गए लेकिन उनका साथी तीर से घायल हो गया। 24 दिसंबर की इस घटना से ब्रिटिश सरकार सकते में आ गई और उन्होंने दमन की कार्रवाई तेज कर दी। बड़े स्तर पर गिरफ्तारियां होने लगी।
पहाड़ी पर जमकर हुआ युद्ध

ब्रिटिश सरकार को खबर मिली की कि नौ जनवरी को सइल रकब पर मुंडाओं की एक बड़ी बैठक होने वाली है। यह पहाड़ी करीब 300 फीट ऊंची थी। पुलिस यहां दल-बल के साथ पहुंच गई और पुलिस और विद्रोहियों के बीच जमकर संघर्ष हुआ लेकिन बिरसा मुंडा को पकड़ने में पुलिस कामयाब नहीं हो पाई। बिरसा भागकर अयूबहातू पहुंच गए और जब पुलिस यहां पहुंचे तो वह अपना वेशभूषा बदलकर पुलिस को चकमा देने में कामयाब हो गए। पुलिस ने बिरसा को पकड़ने के लिए एक नई तरकीब निकाली। बिरसा का पता बतलाने वाले को इनाम देने की घोषणा कर दी। लालच में लोग फंस गए और सात व्यक्ति बिरसा का पता ढूंढने में लग गए। अंग्रेजों के लिए काम करने वाले इन लोगों ने 3 फरवरी को कुछ दूरी पर सेंतरा के पश्चिमी जंगल के काफी अंदर धुआं उठता हुआ देखा। वे जमीन पर रेंगते हुए वहां पहुंच गए। वहां जब सभी खा-पीकर सो गए तो इन लोगों ने मौका देखकर वहां मौजूद बिरसा समेत उनके सभी अनुयायियों को दबोच लिया और बंदगांव के डिप्टी कमिश्नर को सुपुर्द कर दिया। इसके बदले में अंग्रेजी सरकार के तरफ से सातों को पांच सौ रुपये का भारी-भरकम इनाम दिया गया।
जेल में हैजा के चलते चली गई जान

बिरसा को वहां से रांची जेल भेज दिया गया। 9 जून 1900 में बिरसा का रांची जेल में ही हैजा के कारण मृत्यु हो गई। बगावत के डर से अंग्रेजी सरकार ने आनन-फानन में कोकर पास डिस्टिलरी पुल के निकट उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। बिरसा अपने शहादत के समय 25 वर्ष के भी नहीं हुए थे। छोटी जिंदगी में बड़े संघर्ष के बल पर ही बिरसा आदिवासी समाज में ईश्वर का दर्जा पा गए।

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