अदम्य साहस और वीरता की मिशाल बने सूबेदार मंगेज सिंह
मंगेज सिंह राठौड़ का भारतीय सेना की 11वीं राजपूताना राइफल्स बटालियन में सूबेदार के पद पर तैनाती हुई थी। कारगिल युद्ध के दौरान उन्हें 10 अन्य सैनिकों के साथ तुर्तुक क्षेत्र में भेजा गया। जहां पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सरहद की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहे थे। सूबेदार मंगेज सिंह राठौड़ को इसका मुकाबला करते हुए, दुश्मनों को सरहद से बाहर धकेलना था।वह अपने अन्य साथियों के साथ आगे बढ़े। इस दौरान पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना के जवानों पर ऑटोमेटिक हथियारों हमला कर दिया। जिससे कुछ अन्य साथी घायल हो गए। सूबेदार मंगेज सिंह राठौड़ ने इससे मुकाबला करने का फैसला किया, इस दौरान दुश्मनों के गोलियों से वह घायल हो गए। बावजूद इसके वह अपने अंतिम सांस तक दुश्मनों के सामने डटे रहे। वह 6 जून 1999 को शहीद हो गए।
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8 हफ्ते तक नहीं मिल पाई थी पार्थिव शरीर
6 जून 1999 को उनकी शहादत के बाद यह सूचना उनके परिवारजनों को प्राप्त हुई। पत्नी संतोष कंवर ने तत्कालीन सरकार से उनके शव को पैतृक आवास तक लाने का अनुरोध किया। बताया जाता है कि उनके शहादत के बाद उनका शव बर्फ की मोटी चादर में दब गया था। परिवार के अनुरोध के बाद तालाशी की गई। इस दौरान उनकी पत्नी ने प्रण किया है कि जबतक वह अपने शहीद पति का चेहरा नहीं देख लेती वह अन्न ग्रहण नहीं करेंगी। करीब महीनों तक वह बिना अन्न-पानी का उनका इंतजार करती रहीं। आखिर कर 64 दिन बाद शहीद सूबेदार मंगेज सिंह राठौड़ का पार्थिव शरीर खोजा जा सका। जिसके बाद, राष्ट्रीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया।
वीर चक्र से नवाजे गए
शहीद सूबेदार मंगेज सिंह राठौड़ को मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया और उनके नाम पर कारगिल में भारत के कब्जे वाले कुछ क्षेत्र का नामकरण मंगेज सिंह हरनावा के नाम पर किया गया। वहीं, प्रदेश सरकार ने भी उनके नाम से एक विद्यालय का नामकरण किया है।