नागौर

वीरान पड़ी है मुगलिया सल्तनत में दबदबा दिखाने वाले स्वाभिमानी की अमर निशानी

हमारी विरासत: नागौर में आज भी अलग-थलग ही पड़ा है अमरसिंह राठौड़ का स्मारक , सत्रहवीं शताब्दी की स्थापत्य कला का उम्दा नमूना भी है सोलह खंभों की छतरी

नागौरNov 10, 2020 / 04:54 pm

Jitesh kumar Rawal

नागौर. वीर अमरसिंह राठौड़ की छतरी

जीतेश रावल
नागौर. मुगलिया सल्तनत में अपना दबददबा दिखाने वाले स्वाभिमानी वीर की अमर निशानी आज उजाड़ पड़ी है। हालांकि इसे सहेजने के प्रयास किए गए हैं, लेकिन सफाई और देखभाल को लेकर यह निशानी उपेक्षा का शिकार बन रही है। वीर अमरसिंह राठौड़ की याद में बना स्मारक लम्बे समय से उपेक्षा का दंश झेल रहा है। सोलह खंभों का स्मारक सत्रहवीं शताब्दी के स्थापत्य कला का उम्दा नमूना है। वीर अमरसिंह राठौड़ की याद में बना यह स्मारक गौरवान्वित करता है, लेकिन न तो यहां कोई आता है और न ही इस ऐतिहासिक विरासत से रूबरू हो रहा है। इन दिनों यह स्मारक अधिकतर समय ताले में ही बंद रहता है। मुख्यद्वार पर भी ताला लटका रहता है। इन दिनों इस स्मारक की देखरेख पुरातत्व एवं संग्राहालय विभाग करता है, लेकिन केवल बोर्ड लगाने एवं चौकीदार नियुक्ति के अलावा कोई ज्यादा काम नहीं हो रहा।
राव की पदवी के साथ मिला था नागौर
जोधपुर राजघराने से जुड़े अमरसिंह राठौड़ को 1638 ईस्वी में मुगल बादशाह शाहजहा ने नागौर की मनसब और राव की पदवी दी थी। अमरसिंह राठौड़ ने जोधपुर से निकल कर शाहजहां के पक्ष में कई युद्ध लड़े और उनमें बहादुरी दिखाई थी। इससे खुश होकर मुगल बादशाह ने अमरसिंह राठौड़ को यह बख्शीश दी थी।
ठेठ तक स्वाभिमान से रहे
मुगल दरबार आगरा में सलावत खां (मीर बख्शी) ने कुछ कड़वी बात कह दी थी, जो अमरसिंह को नागवार गुजरी। उन्होंने भरे दबार में सलावत खां का कत्ल कर दिया। यह वाक्या 25 जुलाई,1644 ईस्वी में हुआ था। इसके बाद वे बहादुरी से लड़ते हुए दरबार से निकल गए थे, लेकिन बाद में साजिश के तहत उन्हें वापस किले तक लाया गया और हत्या कर दी गई। अमरसिंह के साथी बड़ी बहादुरी से उनका पार्थिव देह नागौर लेकर आने में कामयाब हुए और अंतिम संस्कार किया। उनकी याद में स्मारक बनाया गया। अपने जीवन काल में वे अंतिम समय तक स्वाभिमान से ही रहे।
आकर्षक है छतरी का वास्तु शिल्प
नागौर में झड़ा तालाब के किनारे छतरियां बनी हुई है। सोलह खंभों की छतरी वीर अमरसिंह राठौड़ की है। छतरी में पीले, लाल व बलुआ रंग के पत्थर लगे हुए हैं। स्तंभ, छज्जे व टोड़े भुरे बलुआ पत्थर से, गुम्बद व डाटे लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित है। गुम्बद में फूल-पत्तियों व पशु-पक्षियों की सुंदर नक्काशी बनी हुई है। वास्तु शिल्प की दृष्टि से यह स्मारक सत्रहवीं शताब्दी की राजपूत स्थापत्य कला का नायाब नमूना है। इसके आसपास अन्य आठ छतरियां भी हैं, जो रानियों और परिवार के अन्य लोगों की याद में बनी हुई है।

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