प्रसंगों पर नाटकीयता हावी
अली अब्बास ( Ali Abbas Zafar ) ‘सुलतान’, ‘टाइगर जिंदा है’ और ‘भारत’ मार्का मसालेदार फिल्में बनाते रहे हैं। ‘तांडव’ को भी उन्होंने भरपूर मसालेदार बनाने की कोशिश की है। करीब पांच घंटे लम्बी यह सीरीज तमाशा प्रेमियों का भले थोड़ा-बहुत मनोरंजन कर दे, जो ‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं’ में यकीन रखते हैं, उन्हें हद से ज्यादा शोर-शराबे वाले इस तथाकथित सियासी ड्रामे से कुछ हासिल नहीं होता। सीरीज में किसान आंदोलन, छात्र आंदोलन के साथ-साथ सियासत, सरकारी अस्पतालों और पुलिस महकमे के भ्रष्टाचार को अति नाटकीय बना दिया गया। सीरीज की शुरुआत में जब एक लम्पट बिचौलिया (सुनील ग्रोवर) कहता है- ‘सही और गलत के बीच जो चीज आकर खड़ी हो जाती है, उसे राजनीति कहते हैं’, तो साफ हो जाता है कि ‘तांडव’ बनाने वाले सियासत को किस चश्मे से देखते हैं।
खून-खराबे और साजिश की सियासत
तिंगमांशू धूलिया सीरीज में प्रधानमंत्री बने हैं, जो तीन टर्म से इस कुर्सी पर है और चुनाव के बाद फिर अपनी जीत पक्की मान रहे हैं। हाव-भाव, चाल-ढाल और बात करने के अंदाज से वह प्रधानमंत्री के बजाय तिकड़मी विधायक ज्यादा लगते हैं। उनके बेटे सैफ अली खान भी प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं। तिंगमाशू को लगता है कि अगर बेटा प्रधानमंत्री बन गया, तो तानाशाही का दौर शुरू हो जाएगा, क्योंकि वह विरोधियों को कुचलने में यकीन रखता है। सैफ अली इससे भी चार कदम आगे जाकर तिंगमांशू का ही काम तमाम कर देते हैं। उनकी पार्टी की नेता डिम्पल कपाडिया को (इनके प्रधानमंत्री से ‘खास रिश्ते’ थे) इस हत्याकांड की भनक लग जाती है। उनका मुंह बंद रखने के लिए सैफ अली को मन मारकर उन्हें प्रधानमंत्री बनाना पड़ता है। आगे सैफ इन तिकड़मों में जुटे रहते हैं कि डिम्पल को हटाकर कैसे प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल की जाए।
इतने ग्रे किरदारों की तुक समझ से परे
इस बनावटी कहानी के समानांतर जेएनयू की तर्ज पर वीएनयू (विवेकानंद नेशनल यूनिवर्सिटी) के छात्रों की खून-खराबे वाली घटनाएं भी घूमती रहती हैं। यहां मोहम्मद जीशान अयूब का किरदार जेएनयू के छात्र कन्हैया कुमार जैसा है। इस किरदार को छोड़ ‘तांडव’ में जितने किरदार हैं, सभी नैतिकता, ईमानदारी और सच्चाई की धज्जियां उड़ाते नजर आते हैं। एक प्रोफेसर (संध्या मृदुल) अपने प्रोफेसर पति (डीनो मोरिया) को छोड़कर पहले से शादीशुदा मंत्री (अनूप सोनी) के साथ रह रही है। प्रोफेसर पति एक छात्रा (कृतिका कामरा) के चक्कर काट रहा है। शादीशुदा सैफ अली पूर्व प्रेमिका (साराह जेन डियास) को रक्षा मंत्री बनाकर पुरानी मोहब्बत को नया सिलसिला देने की फिराक में हैं। समझ नहीं आता कि कहानी में इतने ग्रे किरदार दिखाकर अली अब्बास क्या साबित करना चाहते हैं।
डिम्पल और सुनील ग्रोवर की एक्टिंग अच्छी
डिम्पल कपाडिया की सहज अदाकारी ‘तांडव’ में थोड़ी-बहुत राहत देती है। धूर्त और तिकड़मी नेता के किरदार में उनके हाव-भाव और बोलने का अंदाज उनके अब तक के फिल्मी किरदारों से काफी हटकर है। इसी तरह टीवी पर मसखरी करने वाले सुनील ग्रोवर भी लम्पट बिचौलिए के किरदार में चौंकाते हैं। वह फिल्मों में अच्छी खलनायकी कर सकते हैं। बाकी ज्यादातर कलाकारों ने ऐसा कुछ नहीं किया, जो उन्होंने इससे पहले पर्दे पर नहीं किया हो।
पटकथा-निर्देशन घटनाओं को लय नहीं दे पाते
कई स्तरों पर घूमती ‘तांडव’ की कहानी इसलिए भी नहीं बांध पाती कि पटकथा और निर्देशन घटनाओं को कोई निश्चित लय नहीं दे पाते। एक सीन में कॉलेज की मारधाड़ दिखाई जाती है, तो अगले ही सीन में कैमरा सैफ अली के महल जैसे निवास पर पहुंच जाता है। कभी थाने के चक्कर काटते-काटते अचानक प्रेम में लीन किसी जोड़े पर मंडराने लगता है। चूंकि सीरीज ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए बनाई गई है, इसलिए शुरू से आखिर तक गालियों की भरमार है। महिला किरदार भी बेखटके गालियां देती रहती हैं।