मारधाड़ के बीच तीन जोड़ों का प्रेम
अनुराग बसु की पिछली फिल्मों ‘लाइफ इन ए मेट्रो’ और ‘गैंगस्टर’ की तरह ‘लूडो’ में भी मुजरिमों की लोकल गैंग की इतनी मारधाड़ है कि कहानी का सिलसिला समझ में नहीं आता। हर दूसरे सीन में कोई न कोई किसी न किसी की धुलाई करता नजर आता है। एक सीन में पीछे टीवी पर भगवान दादा की पुरानी फिल्म ‘अलबेला’ का गाना ‘किस्मत की हवा कभी नरम, कभी गरम’ चल रहा है, सामने लोकल डॉन सत्तू (पंकज त्रिपाठी) गोलियां चलाकर एक भाई का काम तमाम कर देता है। अभिषेक बच्चन कभी इसी डॉन के लिए काम करते थे, लेकिन छह साल जेल में रहने के बाद सुधरना चाहते हैं। डॉन नहीं चाहता कि वह सुधरें। इसको लेकर भी मारधाड़ होती रहती है। इसी के बीच तीन जोड़ों आदित्य रॉय कपूर और सान्या मल्होत्रा, राजकुमार राव और फातिमा सना शेख, रोहित सराफ और पर्ल माने की प्रेम कहानियां (नए जमाने की) भी चलती रहती हैं।
हंसाते हैं कुछ प्रसंग
फिल्मों में लाल-पीले और नीले रंगों के कुछ सीन रखना अनुराग बसु का शगल है। ‘लूडो’ भी बीच-बीच में रंग बदलती रहती है, लेकिन ऐसी तकनीकी तड़क-भड़क से पटकथा की कमजोरियां दब नहीं पातीं। इस डार्क कॉमेडी के कुछ प्रसंग थोड़ा-बहुत हंसाते जरूर हैं। मसलन अपने अंतरंग पलों का वीडियो लीक होने पर एक प्रेमी जोड़े का एक-दूसरे पर बरसना, मामला पुलिस तक पहुंचना, पुलिस का मामले से ज्यादा वीडियो देखने में दिलचस्पी लेना और बाद में पड़ताल के लिए वीडियो लोकल डॉन तक पहुंचना। मारधाड़ के बजाय अगर कॉमेडी की यही लय बरकरार रखी जाती, तो शायद कुछ बात बन जाती।
टाइप्ड हो गए पंकज त्रिपाठी
पंकज त्रिपाठी फिल्म में छाए हुए हैं। इस तरह का किरदार वह इतनी फिल्मों में अदा कर चुके हैं कि उन्हें यह कंठस्थ हो गया है। बेहतर होगा कि अब वे टाइप्ड होने से बचें और अपने अभिनय में विविधता लाएं। राजकुमार राव की फिल्म में बड़ी दुर्दशा हुई है। लम्बे बालों और अजीब परिधानों से उन्हें जोकर बना दिया गया। अभिषेक बच्चन को ज्यादा कुछ नहीं करना था। उन्होंने अपने पुराने हाव-भाव फिर दोहरा दिए। आदित्य राय कपूर, सान्या मल्होत्रा और फातिमा सना शेख का काम ठीक-ठाक है।
गालियां डालने की मजबूरी
पूरी फिल्म में पंकज त्रिपाठी लूडो के खेल की तरह पासे फेंकते रहते हैं और बाकी कलाकार गोटियों की तरह ‘कभी नरम, कभी गरम’ रहने वाली ‘किस्मत की हवा’ खाते रहते हैं। कुछ घटनाएं दिलचस्प हैं, लेकिन चूंकि कहानी काफी बिखरी हुई है, यह दिलचस्पी पूरी फिल्म में कायम नहीं रह पाती। गैंगस्टर की फिल्मों में गालियां डालने का चलन आम हो गया है। ‘लूडो’ में कई जगह गालियां सुनाई देती हैं। फिल्म वाले दलील देते हैं कि मुजरिमों की दुनिया का असली माहौल दिखाने के लिए ऐसा किया जाता है। इस बचकाना दलील पर निदा फाजली का शेर याद आता है- ‘इतना सच बोल कि होठों का तबस्सुम (मुस्कान) न बुझे/ रोशनी खत्म न कर, आगे अंधेरा होगा।’
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