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इस क्षेत्र में काम के लिए Vinoba Bhave को मिला था रमन मैगसेसे पुरस्कार, जानें खास बात

आजादी के बाद विनोबा भावे के भूदान आंदोलन को भारत में चरम सफलता मिली।
गांधी के बाद गरीबों की सबसे ज्यादा चिंता विनोबा भावे ने की।
सामुदायिक नेतृत्व के लिए विनोबा भावे को मिला पहला रमन मैगसेसे पुरस्कार।

Sep 11, 2020 / 03:31 pm

Dhirendra

Vinoba bhave

गांधी के बाद गरीबों की सबसे ज्यादा चिंता विनोबा भावे ने की।

नई दिल्ली। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बाद महान समाज सेवी और धर्म सुधारक विनोबा भावे ( Vinoba Bhave ) ने सबसे ज्यादा गरीबों व दबे कुचलों की चिंता की। यही वजह है कि मुख्यधारा से कटे लोगों को उनका अधिकार दिलाने के लिए भावे के भूदान आंदोलन को भारत में चरम सफलता मिली। यहीं नहीं, भारत के इतिहास में उनके इस काम ने एक नए अध्याय का जोड़ दिया और भावे गरीबों के मसीहा बन गए।
यह एक ऐसा आंदोलन बना जिसने दुनिया भर में दबे-कुचलों के लिए लड़ाई के मामले में अपनी अलग पहचान बनाई। आज ही के दिन उन्होंने जीवनदायिनी शिविर की शुरुआत की थी।

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दरअसल, विनोबा भावे गांधीजी के अनुयायी थे। वह गांधी के अहिंसा और सबके लिए समानता के सिद्धांत के असली पुजारी थे। वैसे तो उन्होंने जनहित में कई काम किए लेकिन उनका सबसे बड़ा काम भूदान आंदोलन है जिसकी विश्व स्तर पर तारीफ की हुई।
भावे को मिला सामुदायिक नेतृत्व का पहला पुरस्कार

समाज सेवी विनोबा भावे ने अपना जीवन गरीबों और दबे-कुचले वर्ग के हितों की संघर्ष में समर्पित कर दिया। आजादी के बाद देश में वह उन लोगों के अधिकारों के लिए खड़े हुए जिनके लिए आज भी कोई खुशी—खुशी खड़ा नहीं होना चाहता।
उन्होंने भारत को आजादी मिलने के बाद देशभर में भूदान आंदोलन चलाया। इस आंदोलन को सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली। वह लोकप्रियता के मामले में शिखर पर पहुंच गए। इस आंदोलन के लिए उन्हें सामुदायिक नेतृत्व के लिए 1958 में पहला अंतरराष्ट्रीय रमन मैगसेसे पुरस्कार मिला। इतना ही नहीं, 1983 में मरणोपरांत उनको देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
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मां से मिली थी आध्यात्म की राह पर चलने की प्रेरणा

बता दें कि 11 सितंबर, 1895 को उनका जन्म महाराष्ट्र कोलाबा के गागोड गांव में हुआ और निधन 15 नवंबर, 1982 को हुआ था। उनका वास्तवित नाम विनायक नरहरि भावे था। उनके पिता का नाम नरहरि शम्भू राव और माता का नाम रुक्मिणी देवी था। उनकी माता रुक्मिणी धार्मिक स्वाभाव वाली महिला थीं। अध्यात्म के रास्ते पर चलने की प्रेरणा उनको अपनी मां से ही मिली थी।

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