सांसदों के नैतिक आचरण पर नजर रखने के लिए 4 मार्च, 1997 को तत्कालीन उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति केआर नारायणन उच्च सदन की आचार समिति का गठन किया। लोकसभा के लिए 2000 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष जीएमसी बालयोगी ने एक तदर्थ आचार समिति का गठन किया, जो 2015 में सदन का स्थायी हिस्सा बन गई।
इसमें अलग-अलग दलों के 15 सदस्य होते हैं। अभी कौशांबी से भाजपा सांसद विनोद कुमार सोनकर इसके अध्यक्ष हैं। अभी इसमें 7 भाजपा, चार कांग्रेस के, जबकि शिवसेना, जदयू, सीपीआइएम व बसपा का एक-एक सांसद है। लोकसभा अध्यक्ष आचार समिति के सदस्यों की नियुक्ति करते हैं, जिनका कार्यकाल एक वर्ष के लिए होता है।
कोई भी व्यक्ति किसी सांसद के खिलाफ शिकायत कर सकता है, लेकिन अनैतिक आचरण के सबूत होने चाहिए। एफिडेविट भी जमा करना होता है। लोकसभा या राज्यसभा सदस्य खुद शिकायत करता है तो एफिडेविट की जरूरत नहीं। शिकायत लोकसभा सांसद के जरिए जाएगी।
लगभग 15 साल बाद किसी सांसद को सदन की सदस्यता से निष्कासित किया गया है। इससे पहले 2008 में लोकसभा के भाजपा सांसद बाबू भाई कटारा की मानव तस्करी के मामले में सदस्यता गई थी। इससे पहले 2005 में ‘पैसे के बदले प्रश्न’ के स्टिंग ऑपरेशन के बाद लोकसभा के दस व राज्यसभा के एक सदस्य को सांसदी गंवानी पड़ी थी। सबसे पहले 24 सितंबर, 1951 को बॉम्बे के कांग्रेस सांसद एचजी मुद्गल को रिश्वत लेने के आरोप में निष्कासित कर दिया गया था।
समिति सबसे पहले प्रारंभिक जांच करती है। समिति की राय में यदि प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं है, तो वह मामले को हटाने की सिफारिश कर सकती है। इसके लिए समिति अध्यक्ष स्पीकर को सूचना देते हैं। यदि प्रारंभिक जांच के बाद समिति की राय में मामला बनता है, तो समिति जांच करती है। इसके बाद समिति लोकसभा अध्यक्ष को सिफारिश भेजती है।
अगर आचार समिति की जांच में किसी सदस्य को नैतिक दुव्र्यवहार या आचार संहिता के उल्लंघन का दोषी पाया जाता है तो नियम 297 के तहत दंडात्मक कार्यवाही का प्रावधान है। जिसके तहत निंदा, भत्र्सना और तय समय के लिए सदन से निलंबन शामिल है।