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दलित संघर्ष: ज्योतिबा फुले से मायावती तक

इंसान के रूप में अपनी पहचान बनाने के लिए सैकड़ों सालों से दलितों का संघर्ष जारी है। पहले ये अछूत कहलाते थे, अब दलित कहा जाता है।

Apr 14, 2018 / 11:45 am

Siddharth Priyadarshi

dalit leaders
नई दिल्ली। दलित का शाब्दिक अर्थ दमित, शोषित, कुचला हुआ माना जाता है। माना जाता है कि सबसे पहले 1927 में महात्मा गांधी ने एक गुजराती लेख में राजनैतिक रूप से दलित शब्द का प्रयोग किया था। इंसानों के बीच महज उनकी जाति को लेकर फर्क करने वाली सामाजिक व्यवस्था में दलित आज भी अपनी पहचान बनाए को लेकर संघर्षरत हैं। ये संघर्ष सैकड़ों साल पुराना है और दलितों की यह लड़ाई अब भी किसी न किसी रूप जारी है। उनके संघर्ष की ये कहानी तो उस दौर से शुरू होती है जब उन्हें केवल सर पर मैला ढ़ोने और ऊंची जातियों की सेवा करने के योग्य ही समझा जाता था।
ज्योतिबा ने जलाई ज्योति

पुणे के ज्योतिराव फुले वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने दलितों की असल समस्यायों की जड़ पहचानना शुरू किया। उन्होंने दलितों को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें शिक्षित करने पर जोर दिया। जिस वक्त ज्योतिबा ने दलित शिक्षा के लिए अपनी लड़ाई शुरू की, उन्हें ऊंची जातियों के अलावा अपने समाज के लोगों का भी विरोध झेलना पड़ा था। तत्कालीन भारत में यह बहुत क्रांतिकारी कदम था। जिन लोगों को सिर्फ मजदूरी करने, मैला ढोने और ऊंची जाति के लोगों की सेवा करने के लिए अधिकृत कर दिया गया था, फुले ने उन लोगों के हाथों में किताब पहुंचाने की हिम्मत दिखाई थी।
अपने इन्ही उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उन्होंने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की। इस संगठन ने स्त्री शिक्षा के लिए बेहतरीन काम किया। ज्योतिबा फुले ने सिर्फ समाज के कमजोर वर्गों को पढ़ाने पर ही जोर नहीं दिया बल्कि अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले के साथ मिलकर लड़कियों को भी स्कूल तक आने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने महाराष्ट्र में महिलाओं के लिए पहला स्कूल खोला, जो भारत में भी महिलाओं का पहला स्कूल था।
अंबेडकर का योगदान

दलितों को एक समाज के रूप में संगठित करने और समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने किया। अंबेडकर ने अपने जीवन में वह दौर देखा था जब दलितों को सवर्णों के कुँए से पानी लेने की इजाजत नहीं थी। अंबेडकर महार जाति से ताल्लुक रखते थे जिन्हें अपनी कमर के पीछे झाड़ू बांधकर चलना होता था ताकि रास्ते में उनके पैरों के निशान मिटते रहें और ऊंची जातियों को उनके पदचिन्हों पर न चलना पड़े। उन्होंने देश में सबसे पहले दलितों के लिए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की पैरवी की। इसके लिए डॉक्टर आंबेडकर ने 1924 में डिप्रेस्सेड क्लास मिशन और 1927 में बहिष्कृत भारत नाम की पत्रिका निकालनी शुरू की। आजादी के बाद वह 1956 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना की।
हरिजन शब्द का विरोध

महात्मा गांधी ने दलितों को सम्मान देने के लिए उन्हें हरिजन कहना शुरू किया। इसके पीछे उनकी मंशा दलितों को हरिजन यानी भगवान के लोग कहने की थी लेकिन बाद में दलित समाज के लोगों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। जब संविधान का निर्माण किया गया तो दलितों के लिए उन्होंने अनुसूचित जाति शब्द का इस्तेमाल किया लेकिन दलित शब्द को सबसे ज्यादा लोकप्रिय बनाने में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम का योगदान अहम माना जाता है।
कांशीराम ने फूंकी दलित आंदोलन में नई जान

आज देश के सामने दलित राजनीति का जो रूप है, उसे गढ़ने वाले दिग्गज नेता कांशीराम हैं। कांशीराम ने अलग-अलग मुद्दों पर, अलग-अलग क्षेत्रों में बंटे दलितों को एक सूत्र में बांधने का काम किया और इसके तहत उन्होंने 1978 में बामसेफ की स्थापना की जो आज तक काम कर रहा है। पहले बामसेफ एक ऐसा गैर-राजनीतिक संगठन था, जिससे समाज का हर वो व्यक्ति जुड़ सकता था, जो तत्कालीन सामाजिक ढांचे में बराबरी का अधिकार पाने के लिए छटपटा रहा था। बाद में उन्होंने 1984 में दलितों को समर्पित बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की। कांशीराम ने दलित समाज को नई पहचान देते हुए उसे बहुजन शब्द से संबोधित किया। अपनी दूरगामी राजनीति के चलते बाद में उन्होंने बहुजन समाज में तमाम अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जातियों, अन्य पिछड़ा वर्ग और मुसलमानों को भी लाने की कोशिश की। कांशीराम ने पहली बार एक वोटबैंक के रूप में दलित समाज को संगठित किया।
मायावती का दौर

2001 में कांशीराम ने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। मायावती ने कांशीराम को राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाते हुए दलितों को राजनीति के मुख्य मंच पर खड़ा कर दिया। उन्होंने दलितों के साथ दूसरी सवर्ण जातियों को जोड़कर राजनीति में सोशल इंजीनियरिंग का नायाब फॉर्मूला गढ़ा। मायावती ने दलित वोटबैंक को एकजुट रखते हुए दो बार उत्तर प्रदेश की सत्ता तक पहुंचने में सफलता पाई।

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