मालवा-मेवाड़ का रहा संधि स्थल
बताया तो यह भी जाता है कि चित्तौड़ पर आक्रमण करने जाते समय उनकी सेना यहां से गुजरती थी तब अतिरिक्त सेना जो होती थी वह यहां रुकती थी जहां उनका मुख्यालय था लगता है। मंदसौर मालवा और मेवाड़ का संधि स्थल यह किला व क्षेत्र रहा है यह दोनों के मध्य स्थित होने के कारण इस दुर्ग पर मालवा और मेवाड़ तथा मुगलों का समय-समय पर शासन होता रहा है।
पांचवी से सातवी शताब्दी के ओलिकर वंश रहा
मंदसौर का प्राचीन इतिहास गौरवपूर्ण है। पुरातत्वविद कैलाशचंद्र पांडे ने बताया कि पांचवी से सातवीं शताब्दी तक ओलिकर वंश यहां रहा। ऐसा प्रमाण भानपुरा में एक खंडित शिलालेख जो 475 ईसवी का है। उससे पता चलता है महाराणा कुंभा ने जब मांडू के सुल्तान को पराजित किया तब सोलवी शताब्दी में उनका इस पर कब्जा हुआ महाराणा कुंभा के किलेदार अशोक मूल राजपूत को यहां की जिम्मेदारी सौंपी गई।
गुजरात के शासन की सेना तालाब किनारे ठहरी थी
पुरातत्व विद् पांडे ने बताया कि 24 सितंबर 1857 को शहजादा फिरोज का अंग्रेजों की सेना से गुराडिया में युद्ध हुआ था जिसमें वह पराजित हो गया तो फिर वहां से भागकर उत्तर प्रदेश की ओर चला गया। मुगल सम्राट का गौरवशाली पक्ष यह भी है कि चित्तौड़ के दूसरे साके जोहर के समय चित्तौड़ की महारानी कर्मण्य वती ने राखी भेजकर मुगल सम्राट हुमायूं को आमंत्रित किया था तब हुमायूं ने इस किले में अपनी सेना सहित लगभग एक माह रुका था कि नए से उत्तर पश्चिम में गुजरात के शासक बहादुर शाह गुजराती की सेना तालाब किनारे यहां ठहरी थी। यहां 5 वी से 7 वी शताब्दी में कोई डेढ़ सौवर्षो ओलिकर वंश रहा। उसके बाद होशंग शाह से लेकर फिरोजशाह तक के राजवंशों ने यहां शासन किया अकबर ने 1561 में जब अपने राज्य का पुनर्गठन किया तब मंदसौर एक सरकार के रूप में विकसित हुआ। 1925 में सिंधिया ने यहां सुबायत कायम की थी।तब ॅ कलेक्टर कार्यालय का भवन बना था।
शहर में स्थित इस किले की खासियत एक और यह है कि इसमें 12 दरवाजे है। लेकिन देखरेख के भाव में जहां यह दरवाजे कुछ क्षतिग्रस्त हुए हैं वही इस किले की चार दिवारी जिसे परकोटा भी कहा जाता है को कुछ जगह से नुकसान पहुंचाया गया तो कुछ जगह से वह गिर गई है यह सभी 12 दरवाजे अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं। दक्षिण पूर्व में नदी दरवाजा इसका मुख्य मार्ग था। 1496 मुखबिर खान ने कराया था इसका दूसरा दरवाजा भी प्रख्यात है। वर्तमान में उसे मंडी गेट के नाम से भी जाना जाता है इस दरवाजे पर 1857 की क्रांति के दौरान शहजादा फिरोज की सेना ने जीरन के मैदानी युद्ध में 12 अक्टूबर 1857 को कैप्टन और टक्कर के सर काटकर गेट पर टांग दिया था। क्रांतिकारी लाला सोहरमल को छोड़कर 3 क्रांतिकारियों को 18 दिसंबर 1958 को फांसी दी गई थी।