फ्यूजेरियम विल्ट के लक्षण और प्रकोप
फ्यूजेरियम विल्ट रोग केले के पौधों के तने के भीतरी हिस्से को प्रभावित करता है। इसके कारण तने का भीतरी भाग कत्थई या काले रंग का हो जाता है, जो पौधे के गंभीर संक्रमण का संकेत है। अगर समय रहते इसका इलाज नहीं किया गया, तो पूरी फसल बर्बाद हो सकती है।
CISH द्वारा विकसित समाधान: बायोएजेंट और फ्यूसिकोंट फॉर्मूलेशन
CISH,
लखनऊ और करनाल स्थित केंद्रीय लवणता शोध संस्थान के सहयोग से एक नया प्रबंधन प्रोटोकॉल विकसित किया गया है, जिसे केला किसानों के लिए अत्यधिक उपयोगी बताया जा रहा है। यह समाधान बायोएजेंट और फ्यूसिकोंट (ट्रायकोडर्मा आधारित सूत्रीकरण) के उपयोग पर आधारित है।
संस्थान के निदेशक डॉ. टी. दामोदरन के अनुसार बायोएजेंट (फ्यूसिकोंट) का पानी में घुलनशील फॉर्मूलेशन तैयार किया गया है। इसके प्रयोग के लिए एक किलो बायोएजेंट को 100 लीटर पानी में घोलकर केले की फसल की जड़ों में रोपाई के 3, 5, 9, और 12 महीने बाद डाला जाता है। अगर रोग के लक्षण पहले से मौजूद हों, तो 3 किलो फ्यूसिकोंट फॉर्मूलेशन को 500 ग्राम गुड़ के साथ 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रयोग किया जा सकता है।
फसल चक्र और टिशू कल्चर पौधों का प्रयोग: संक्रमण से बचाव
डॉ. दामोदरन ने सलाह दी है कि केला उत्पादक किसान फसल चक्र अपनाएं, जिससे रोग के संक्रमण का खतरा कम हो सके। उन्होंने बताया कि पहले साल की फसल के बाद केले की पुत्ती से दूसरी फसल लेने पर संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। इसलिए बेहतर होगा कि केले के बाद धान, गेहूं, प्याज, या लहसुन जैसी फसलें ली जाएं। इसके अलावा, टिशू कल्चर पौधों का प्रयोग करके भी संक्रमण से बचाव किया जा सकता है। प्रमुख केला उत्पादक जिलों में जागरूकता और उपाय
CISH के प्रधान वैज्ञानिक पी.के. शुक्ल ने बताया कि अमेठी, बाराबंकी, अयोध्या, गोरखपुर, महाराजगंज, और संत कबीर नगर जिलों में केले के बागों का निरीक्षण किया गया। इन जिलों में केले की जड़ों के आसपास पादप परजीवी सूत्रकृमि की उपस्थिति देखी गई, जो फसल की उपज क्षमता को कम कर सकती हैं और फसल को अन्य कवक जनित रोगों के प्रति संवेदनशील बना देती हैं। फसल चक्र और टिशू कल्चर पौधों का प्रयोग करके इनकी जनसंख्या को नियंत्रित करना ही किसानों के लिए सही मार्गदर्शन हो सकता है।
योगी सरकार का केला उत्पादकों को प्रोत्साहन
उत्तर प्रदेश सरकार केले की फसल के आर्थिक और पोषण संबंधी महत्व को देखते हुए किसानों को विशेष प्रोत्साहन दे रही है। केले की खेती के लिए प्रति हेक्टेयर अनुदान के साथ-साथ ड्रिप या स्प्रिंकलर प्रणाली और सोलर पंप लगाने पर भी भारी अनुदान दिया जा रहा है। कुशीनगर को एक जिला, एक उत्पाद (ODOP) योजना के तहत केला उत्पादन का प्रमुख केंद्र बनाया गया है, जिससे केले से जुड़े कई उत्पादों का उत्पादन और व्यापार हो रहा है। उत्तर प्रदेश में केले की खेती का विस्तार
उत्तर प्रदेश में केले की खेती का रकबा वर्तमान में लगभग 70,000 हेक्टेयर है, और उत्पादन 3.172 लाख मीट्रिक टन से अधिक है। प्रति हेक्टेयर उत्पादन करीब 45.73 मीट्रिक टन है। कुशीनगर, गोरखपुर, देवरिया, बस्ती, महाराजगंज, अयोध्या, बहराइच, अंबेडकर नगर, और प्रतापगढ़ जैसे जिले केला उत्पादन में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं।