आजादी के बाद चौ. चरण सिंह कांग्रेस के साथ थे। कुछ समय बाद धीरे-धीरे पार्टी में यूपी के तीन गुट बन गए। इनमें एक गुट अलीगढ़ के सीबी गुप्ता का, दूसरा पूर्वांचल के कमलापति त्रिपाठी का और तीसरा पश्चिम के चरण सिंह का बना। कमलापति त्रिपाठी गुट में अलीगढ़ से मोहनलाल गौतम थे, जबकि चरण सिंह गुट में अलीगढ़ से ही चौ. शिवदान सिंह थे। इसी गुटबाजी का परिणाम रहा कि कांग्रेस ने इगलास से शिवदान सिंह का टिकट काटकर मोहनलाल गौतम को 1967 के चुनाव में लड़ाया। इससे चरण सिंह बेहद नाराज हुए। उन्होंने तमाम बातों को लेकर अलग संगठन बीकेडी बनाया।
1969 में फिर चुनाव हुआ और इगलास से अपनी पत्नी गायत्री देवी को बीकेडी के बैनर से चुनाव लड़ाया। अलीगढ़ से इस दल ने कुल 4 सीटें जीतीं। यूपी में 125 सीटें इस दल ने जीतीं। इगलास इस दल का सियासी केंद्र रहा और शिवदान सिंह उनके प्रतिनिधि रहे। इस चुनाव में उन्हें अच्छी सफलता मिली और दोबारा 17 फरवरी 1970 के वे मुख्यमंत्री बने। यहीं से प्रदेश की सियासत चलने लगी।
चौधरी चरण सिंह ने 1974 के चुनाव में लोकदल के नाम से पार्टी की मान्यता के लिए आवेदन किया। लेकिन मान्यता नहीं मिली। इसके कारण बीकेडी के बैनर से ही चुनाव लड़ा गया। साथ में लोकदल का भी नया बैनर चुनाव में लहराया गया। देश के कई दिग्गज कर्पूरी ठाकुर, बीजू पटनायक आदि इस दल में साथ रहे। इस चुनाव में इगलास व गंगीरी सीट बीकेडी ने जीती। इमरजेंसी के बाद सातों सीटों पर कब्जे का इतिहास भी 1977 में चरण सिंह के नेतृत्व में रचा गया।
1985 के चुनाव में लोकदल का उदय हुआ। पार्टी के बैनर पर इगलास व खैर सीट पर जीत दर्ज हुई। इसी चुनाव में मुलायम सिंह पार्टी में शामिल हुए। जातिवाद को बढ़ावा देने के आरोप से बचने के लिए मुलायम सिंह को विरोधी दल के नेता का जिम्मा और राजेंद्र सिंह को प्रदेशाध्यक्ष का जिम्मा दिया गया। 1989 के चुनाव में पिता के देहांत के बाद अजित सिंह के हाथ पार्टी की कमान आई। यह चुनाव जनता दल के बैनर तले लड़ा गया, लेकिन पार्टी अलीगढ़ में हार गई। सिर्फ एक खैर सीट जीत सकी। खुद राजेंद्र सिंह इगलास से चुनाव हार गए।
अजित सिंह ने 1989 में ही राजेंद्र सिंह को संसदीय बोर्ड का चेयरमैन बना दिया। बाद में विधानसभा चुनाव हारने के कारण उन्हें एमएलसी का चुनाव जिताया गया। 1991 के चुनाव में चरण सिंह की बेटी डॉ. ज्ञानवती को जनता दल से इगलास से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। इस बार बरौली से दलवीर सिंह भी चुनाव जीते। लेकिन 1989 के चुनाव के बाद प्रदेश में मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री बनाने संबंधी अजित सिंह के समर्थन ने राजेंद्र सिंह को प्रभावित किया। इसके बाद उन्होंने खुद को राजनीति से दूर रखना और अजित सिंह के परिवार से दूरी बनाना शुरू कर दिया।
1991 में राजेंद्र सिंह के एमएलसी बनने के बाद दोनों परिवारों में अलगाव के चलते लोकदल की विरासत को लेकर टकराव हुआ तो अजित सिंह ने जनता दल के बैनरतले प्रदेश में चुनाव लड़ा। अलीगढ़ जिले की खैर सीट पर जगवीर सिंह को जिताया। 1996 के चुनाव में मतभेद इस कदर दिखाई दिए कि अलीगढ़ की एक भी सीट अजित सिंह न जीत सके। इस चुनाव के बाद राजेंद्र सिंह सियासत से पूरी तरह दूर हो गए। दोनों परिवारों में मतभेद के बीच कोर्ट के जरिये राजेंद्र सिंह के पुत्र सुनील सिंह ने लोकदल का वारिसान हक मिल गया। इसी के चलते अजित सिंह को 1996 में राष्ट्रीय लोकदल के नाम से नई पार्टी का गठन करना पड़ा।