किसी भी दवा कंपनी को दवा बनाने से पहले पहले फॉर्मा कॉपी के मानकों का पालन करना पड़ता है। कोई भी दवा पहले दवा होती है, उसके बाद ब्रांडेड या जेनेरिक। दवा कंपनियों की ओर से दवा बनने के बाद उसकी मार्केटिंग की जाती है। मान लीजिए कि किसी दवा की कीमत दो रुपए प्रति 10 टैबलेट है, उपभोक्ता तक पहुंचते-पहुंचते कई गुना बढ़ जाती हैं और दवाइयां बहुत महंगी हो जाती हैं।
जो दवाइयां पेटेंट फ्री होती हैं, उन्हें जेनेरिक दवाइयां कहते हैं। मान लीजिये एक दवा कंपनी की ओर से कई सालों तक रिसर्च के बाद एक दवा का निर्माण किया गया तो उस दवा के फॉर्मूले का कॉपीराइट एक तय सीमा तक कंपनी के पास रहेगा। इस दौरान इस फॉर्मूले का प्रयोग कोई भी दूसरी कंपनी नहीं कर सकती। उस दवा के फॉर्मूले का कॉपीराइट उक्त कंपनी के पास कितने दिन तक रहेगा, ये सरकार तय करती है। इसका निर्धारण सरकार की ओर से दवा को ढूंढ़ने से लेकर बनाने तक जितना खर्च होता है, उस आधार पर किया जाता है।
पत्रिका की ओर से लगभग हर तबके के करीब 20 लोगों से जेनेरिक दवाओं के बारे में पूछा गया, जिनमें से ज्यादातर लोग बता ही नहीं पाए कि ये जेनेरिक दवा होती क्या हैं। कई लोगों ने जेनेरिक दवा का नाम ही पहली बार सुना।
उत्तर प्रदेश फॉर्मेसी कॉउंसिल के चेयरमैन सुनील यादव का कहना है कि यूपी फॉर्मेसी कॉउंसिल की ओर से मरीजों के हितों का ध्यान रखते हुए सरकार की ओर से दो नियम लागू करने की मांग हमेशा से की जाती रही है। एक कि डॉक्टरों की ओर से उक्त दवा का नाम न लिखकर केमिकल का नाम लिखा जाए। दूसरा मरीजों को लिखी जाने वाली दवाइयां घसीट राइटिंग में लिखने के बजाय कैपिटल लेटर में लिखी जाएं। इससे ये होगा कि मरीजों को सस्ती दवा उपलव्ध हो सकेगी। इसके अलावा कई दवाओं के नाम एक जैसे होते है जिससे दवा काउंटर पर दवा विक्रेता को दवाई समझने में दिक्कत होती है और गलत दवा दे दी जाती है जिससे मरीज को फायदे के बदले नुकसान ही होता है।