मंदिर स्थापना की यह है कहानी
गांव के वरिष्ठ अध्यापक नरेश कुमार मीणा ने बताया कि नवरात्र में वर्षों से माता का जस गीत गाया जाता है, जिसमें माता की स्थापना के बारे में बताया जाता है। इसके मुताबिक विक्रम संवत 1169 में कोटसुवां गांव में चम्बल नदी के दूसरी ओर एक दिव्य कन्या ने कालू कीर नामक नाविक को नाव से पार करवाने के लिए बुलाया। जहां दिव्य कन्या ने इन्द्रासन से आने की बात कही। नदी के बीच नाविक के मन में पाप आ गया। इसे जान दिव्य कन्या ने उसे नाव में ही गोंद रूप में चिपका दिया। इसके बाद गांववासी एकत्रित हुए तो दिव्य कन्या ने अपना परिचय दिया और कहा कि 14 साल बाद वापस नाविक सही सलामत मिलेगा। आप मंदिर बनवाइए, इसके बाद ठीक वैसा ही हुआ। उस समय के आखाराम पटेल ने माता का मन्दिर बनवाया। इसके बाद से उसी कालू कीर की पीढ़ी के लोग माता रानी की पूजा-अर्चना करते आ रहे हैं।
तीन दिन तक पानी से जलते हैं दीपक
नवरात्र की पंचमी, षष्ठी और सप्तमी तक मंदिर में पानी से अखंड ज्योत जलती है। प्राचीन परंपरा के अनुसार यहां नवरात्र के प्रथम दिन माता के भोपे के शरीर में माता आती हैं। फिर भोपे को ढोल-नगाड़ों के साथ चंबल नदी ले जाया जाता है, जहां नदी के बीचों-बीच से दो घड़े भरकर पानी लाया जाता है, जिसे मंदिर में रखा जाता है। अब यहीं से भोपा का शुद्धीकरण तप शुरू होता है। जहां माता का भोपा नवरात्र में निराहार रहकर मंदिर में ही ध्यान लगाता है।