कानपुर में पहली बार हारे अंग्रेज
इतिहास मनोज कपूर ने बताया कि नाना साहेब सन 1857 के भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार थे। उनका मूल नाम ’धोंडूपंत’ था। नाना साहब ने सन् 1824 में वेणुग्राम निवासी माधवनारायण राव के घर जन्म लिया था। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा ने बालक नानाराव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया और उनकी शिक्षा दीक्षा का प्रबंध किया। 1857 में जब मेरठ में क्रांति का श्रीगणेश हुआ तो नाना साहब ने बड़ी वीरता और दक्षता से क्रांति की सेनाओं का नेतृत्व किया। कानपुर के अंग्रेज एक गढ़ में कैद हो गए और क्रांतिकारियों ने वहां पर भारतीय ध्वजा फहराई। कानपुर में अंग्रेजों को धूल चटाई 1 जुलाई 1857 को जब कानपुर से अंग्रेजों ने प्रस्थान किया तो नाना साहब ने पुर्ण स्वतंत्रता की घोषणा की तथा पेशवा की उपाधि भी धारण की।
इससे चलते उठा ली तलवार
इतिहासकार मनोज कपूर बताते हैं कि, लॉर्ड डलहौजी ने नाना साहेब को दत्तक पुत्र होने के कारण पेंशन देने से मना कर दिया। ऐसे में नाना साहेब को इस बात से बहुत दुख हुआ। नाना साहब ने 1853 में अपने सचिव अजीमुल्लाह को पेंशन बहाली पर बात करने के लिए लंदन भेजा। अजीमुल्लाह खान हिंदी, फारसी, उर्दू, फ्रेंच, जर्मन और संस्कृत का अच्छा ज्ञाता था। इस दौरान अजीमुल्लाह ने अंग्रेज अधिकारियों को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उनकी सभी दलीलें ठुकरा दी गईं। ब्रिटिश अधिकारियों के इस रवैये से नाना साहेब बेहद खफा थे। ऐसे में उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत को ही सबसे अच्छा विरोध का माध्यम माना। उधर, मंगल पांडे के नेतृत्व में मेरठ छावनी के सिपाही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का मन बना चुके थे। खबर उड़ती-उड़ती नाना साहेब के पास पहुंची, तो इन्होंने तात्या टोपे के साथ मिलकर 1857 में ब्रिटिश राज के खिलाफ कानपुर में बगावत छेड़ दी।
इस कांड के बाद अंग्रेज हो गए खफा
मनोज कपूर बताते हैं कि अंग्रेज सरकार नानाराव के साथ समझौता कर लिया और यहां से जाने की घोषणा कर दी, लेकिन अंदरखाने वो अपनी सेनाओं को संगठित कर रहे थे। इसी दौरान कमांडिंग ऑफिसर जनरल विहलर अपने साथी सैनिकों व उनके परिवारों समेत नदी के रास्ते कानपुर आ रहे थे, तो किसी ने तात्या टोपे के पास यह खबर पहुंचा दी की अंग्रेज सिपाही फिर से कानपुर में कब्जा करने के लिए नदी के रास्ते आ रहे हैं। तात्या ने तत्काल अपने सैनिकों के साथ अंग्रेज सैनिकों पर हमला कर दिया। तात्या के क्रांतिकारियों ने अंग्रेज सैनिकों के साथ महिलाओ और बच्चों का कत्ल कर दिया। इस घटना के बाद ब्रिटिश पूरी तरह से नाना साहेब के खिलाफ हो गए और उन्होंने नाना साहेब के गढ़ माने जाने वाले बिठूर पर हमला बोल दिया। हमले के दौरान नाना साहेब जैसे-तैसे अपनी जान बचाने में सफल रहे। मनोज कपूर कहते हैं, वह भागने में सफल हो गए थे और अंग्रेजी सेना से बचने के लिए भारत छोड़कर नेपाल चले गए। पर इतिहास में उनके बारे में ठीक तरह से कुछ नहीं लिखा गया। सबके अपने-अपने मत थे। कोई कहता है कि वो लड़ाई के दौरान शहीद हुए तो किसी ने नाना की मौत बीमारी बताई।
कहां चला गया महज का खजाना
कपूर बताते हैं कि, जिस समय अंग्रेजों ने नाना साहेब के महल पर हमला किया, तो उनके हाथ नाना साहेब तो नहीं लगे, लेकिन अंग्रेजों ने उनके महल को कुरेदना शुरू कर दिया।. लगभग आधी ब्रिटिश सेना को काम पर लगा दिया गया। खजाने की खोज के लिए अंग्रेजों ने कुछ भारतीय जासूसों की भी मदद ली.जिसके चलते वह खजाना ढूंढ पाने में लगभग सफल हो ही गए। महल में खोज के दौरान अंग्रेजों को सात गहरे कुंए मिले, जिनमें तलाशने पर उन्हें सोने की प्लेट मिली थीं। इस दौरान सारा पानी निकाल कर जब कुंए की तलाशी ली गई, तो कुएं के तल में बड़े-बड़े बक्से दिखे, जिसमें सोने की कई प्लेटें, चांदी के सिक्के व अन्य बेशकीमती सामान रख हुआ था।इतना बड़ा खजाना अंग्रेजों के हाथ लग चुका था, बावजूद इसके उनका मानना था कि नाना साहेब खजाने का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने साथ ले गए हैं।
मौत पर सस्पेंश बरकरार
इतिहासकार मनोज कपूर बताते हैं कि माना जाता है कि नेपाल के ’देवखारी’ गांव में रहते हुए नाना साहेब भयंकर बुख़ार से पीड़ित हो गए और इसी के परिणामस्वरूप मात्र 34 साल की उम्र में 6 अक्टूबर, 1858 को इनकी मौत हो गई। वहीं, इतिहासकार राहुल पांडेय कहते हैं कि नाना साहेब अपने आखिरी दिनों में नेपाल में न होकर, गुजरात के ’सिहोर’ में नाम बदलकर रह रहे थे। यहां उन्होंने अपना नाम स्वामी दयानन्द योगेन्द्र रख लिया था, और यहीं बीमारी के कारण उनका निधन हो गया। बहरहाल, जिस तरह से अंग्रेजों को नाना साहेब के बिठूर वाले महल से मिले तथाकथित बेशकीमती खजाने के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, ठीक उसी तरह से आज भी नाना साहेब पेशवा की मौत एक रहस्य बनी हुई है।