न्यायाधीश बीरेन्द्र कुमार ने अचल सिंह व अन्य की अपील पर यह आदेश दिया। इस मामले में अपीलार्थियों के खिलाफ सरकारी कार्य में बाधा डालने और जातिसूचक अपशब्द कहने का आरोप था। कोर्ट ने कहा कि न तो उपयोग किए गए शब्द जातिसूचक हैं और न अपीलार्थियों को अतिक्रमण हटाने आए सरकारी अधिकारियों की जाति की जानकारी थी। यह भी स्पष्ट है कि अपीलार्थियों का उद्देश्य अधिकारियों को उनकी जाति के कारण अपमानित करना नहीं था। उन्होंने तो सार्वजनिक भूमि की गलत माप किए जाने पर विरोध दर्ज कराया था।
तथ्यों के अनुसार 31 जनवरी 2011 को जैसलमेर में एफआईआर दर्ज हुई, जिसमें अपीलार्थियों पर सरकारी भूमि पर अतिक्रमण हटाने गए अधिकारियों को जातिसूचक शब्द कहने और उनसे दुर्व्यवहार किए जाने का आरोप लगाया। अपीलार्थियों का कहना था कि पुलिस ने जांच में इन आरोपों को गलत मानते हुए एफआर पेश कर दी। इसके बावजूद प्रोटेस्ट याचिका के आधार पर अधीनस्थ अदालत ने प्रसंज्ञान लेते हुए आरोप तय कर दिए।
एससी-एसटी अत्याचार मामले में यह जरूरी
हाईकोर्ट ने कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत अपराध तभी साबित होता है, जब कृत्य जाति के आधार पर अपमानित करने की मंशा से किया गया हो और घटना सार्वजनिक रूप से हुई हो। इस मामले में न आरोपियों को अधिकारियों की जाति की जानकारी थी और न मौके पर कोई स्वतंत्र गवाह मौजूद था। हालांकि, पीठ ने आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 353 और 332 के तहत राजकार्य में बाधा के आरोपों को बरकरार रखा।