मध्यकाल में आठ शताब्दी पहले जैसलमेर इस मार्ग के माध्यम से यूरोप से जुड़ा हुआ था। यह रास्ता जैसलमेर से सिंध होते हुए अफगानिस्तान व मध्य एशिया के क्षेत्र से तुर्की और उससे आगे इटली तक जाता था। जैसलमेर तत्कालीन समय में यूरोप तक जाने वाले सिल्क रूट का एक प्रमुख टर्मिनल था। यहां से व्यापारी मसाले, अफीम आदि लेकर ऊंटों के कारवां के रूप में चलते थे। इसी वजह से जैसलमेर की तत्कालीन रियासत बहुत समृद्ध थी। व्यापारियों की आवाजाही से मिलने वाले कर की बदौलत जैसलमेर में अजेय दुर्ग, कलात्मक हवेलियां, गड़ीसर जैसे सुंदर तालाब, विशाल मंदिर आदि का निर्माण करवाने में सहायता मिली।
व्यापारियों को दिए जाते अधिकार पत्र
जैसलमेर अफगानिस्तान और दिल्ली के बीच चलने वाले रेशम मार्ग का हिस्सा था। ऐसे में इस मार्ग से गुजरने वाले व्यापारियों व अन्य लोगों के लिए तत्कालीन शासकों ने कई विश्राम गृह बनाए थे। उस समय व्यापारियों को मुद्रांकित पासपोर्ट यानी अधिकार पत्र भी दिए जाते थे। इस रास्ते से मसाले, रेशम, टेपेस्ट्री, कीमती पत्थर और कांस्य के आभूषण सफर करते थे।
400 साल पहले
मध्य एशिया के पामीर पर्वतों को पार करने के बजाय थार के रेगिस्तान को पार करना व्यापारी पसंद करते थे। मध्यकाल तक जैसलमेर शहर सिंध, मकरान, अफगानिस्तान व शेष भारत के मध्य एक सेतु मंडी था। मध्य एशिया की ओर से आने वाले व्यापारिक काफिले अपना माल जैसलमेर की मंडियों में लाते थे। इस मंडी के व्यवसाय से इस जैसलमेर रियासत और यहां के लोगों को अच्छी आमदनी होती थी।
उत्तर मध्यकाल में डायवर्ट
उत्तर मध्यकाल के आते-आते मध्य एशिया से भारत आने-जाने का मार्ग लाहौर पंजाब के रास्ते हो जाने के कारण यहां का व्यवसाय मुल्तान, सिंध और गुजरात तक ही सीमित रह गया।