डूंगरपुर. बांसवाड़ा की चंदा डामोर आदिवासी कला एवं संस्कृति के संरक्षण के लिए कार्य कर रही हैं। इनकी पंद्रह सदस्यों की टीम है जिसने आदिवासियों की परंपरागत वेशभूषा, भित्ति चित्र, वागड़ी लोक गीत, वाद्ययंत्रों एवं कला के संरक्षण के लिए पांच वर्ष पहले प्रयास शुरू किए गए थे। चंदा डामोर विभिन्न मेलों, आयोजनों में जनजाति कला-संस्कृति से जुड़ी प्रदर्शनी लगाने के साथ ही इसके महत्त्व के बारे में भी बताती हैं। चंदा बताती हैं कि क्षेत्र की संस्कृति को समझने के लिए लोकगीतों को जानना भी जरूरी है। लोकगीत ही संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाते हैं।
रंगोली देराढ़ी के बारे में नई पीढ़ी को बताते
अतिथियों के स्वागत की भी जनजाति क्षेत्रों में विशिष्ट परंपरा है। थाली, कुंडी व ढोल पर थाप के साथ परंपरागत वेशभूषा में स्वागत किया जाता है। शादी-ब्याह के मौके पर पुरातन समय से घरों की दीवारों पर सजाई जाने वाली रंगोली देराढ़ी को लेकर भी नई पीढ़ी को भित्ति चित्र सहित अन्य माध्यमों से अवगत कराया जा रहा है।
जगदलपुर. आदिवासियों पर बस्तर में शोध करने पहुंची दीप्ति ओगरे ने सोचा भी नहीं था कि उन्हें यहां के लोगों से ऐसा प्यार मिलेगा और वे गोंड समुदाय के लिए ‘मृतक स्तंभ’ बनाएंगी। अब वे इस परम्परा को बचाने के लिए लगातार प्रयास कर रहीं है। बच्चों को इसके बारे में पढ़ा भी रही हैं। इसे बेहतर करने का प्रयास कर रही हैं। अब तक वे करीब चालीस से अधिक बच्चों को इसके लिए प्रशिक्षित कर चुकी हैं। दरअसल, दीप्ति का शोध के सिलसिले में गुडिय़ापदर गांव में जाना होता था।
गुडिय़ापदर गांव की बुधरी बाई दीप्ति को बेटी समान मानने लगीं। पिछले वर्ष कैंसर से बुधरी की मृत्यु हो गई। तब बुधरी की याद में परिवारजनों ने दीप्ति को मृतक स्तम्भ बनाने के लिए कहा। मृतक स्तम्भ इस समुदाय की प्रथा है। सामाजिक बैठक में ग्राम देवी गुडिय़ापदरिन, देवी डोकरा, कालापदरिन, गमरानी व पेन पुरखा से अनुमति लेकर दीप्ति को स्तंभ पर चित्रांकन का आदेश दिया गया।
दीप्ति ने यह मृतक स्तम्भ बनाया। बुधरी की यादें इस मृतक स्तंभ में जिंदा हैं। दीप्ति बताती हैं कि मैं अब भी उनके स्तंभ के सामने बैठकर उनके स्नेह और दुलार को याद करती हूं। बुधरी के परिवार ने मुझे इतनी बड़ी जिम्मेदारी दी, यह मेरे लिए अकल्पनीय है। यही बस्तर के आदिवासियों का प्रेम है। वे निश्छल हैं। उनका मन पवित्र है। उनके बीच होना जीवन का सबसे कीमती पल है।
जयपुर. आदिवासी समुदाय की महिलाओं में हुनर तो है लेकिन उनके पास संसाधन नहीं है। उन्हें एक ऐसे प्लेटफार्म की जरूरत है जहां वे अपनी कला के जरिए पहचान बना सकें। यह कहना है समीक्षा भाटी का, जो दो वर्ष से आदिवासी कला के संरक्षण और उसे पहचान दिलवाने के लिए काम कर रही है। वह बीकानेर से हैं और आदिवासी महिलाओं को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने का काम कर रही हैं। अब तक 200 से अधिक आदिवासी महिलाओं को रोजगार दिलवाया है।
सोच… आदिवासी महिलाओं का उत्थान न केवल उन्हें पहचान देगा, बल्कि उनकी कलाओं से आने वाली पीढिय़ां भी अपनी संस्कृति से रूबरू होंगी।
समीक्षा आदिवासी क्षेत्रों की कला को फैब्रिक पर उकेरकर कर इसे दुनिया में पहचान दिलवा रही हैं। वे कारखानों में बचे हुए कपड़ों को इकठ्ठा करती हैं और रिसायकल कर उस पर कांथा ,हाथ की कढ़ाई, पेचवर्क करा रही है। इससे रजाई, दोहर, साडिय़ां, बैग, रुमाल, सजावटी सामान सहित अन्य उत्पाद बना रही हैं।