एवरेस्ट कभी मेरी सोच में भी नहीं था
एवरेस्ट का नाम सुनते ही आज लोग भले ही रोमांच से भर जाते हों, लेकिन मुझे कभी हैरानी नहीं हुई, क्योंकि मैं पहाड़ों की गोद में पली-बढ़ी एक पहाड़ी लड़की थी। लोग एवरेस्ट को एक चुनौती की तरह लेते हैं, लेकिन यह चुनौती नहीं है बल्कि जिंदगी जीने का असली तरीका हमें सिखाता है। मैं स्कूल जाने के लिए पहाड़ों के बीच से रोज पांच किलोमीटर चढऩा और उतरना किया करती थी। तेनजिंग नोर्गे और एंडमंड हिलेरी के बारे में मेंने पहली बार पाचंवीं कक्षा में पढ़ा। तब मुझे उनकी कहानी काल्पनिक लगती थी। पहाड़ की तलहटी में बसे मेरे गांव के एक कोने में अपने घर में बैठकर एवरेस्ट पर चढऩे का सपना देखना तो मेरी कल्पना से भी परे था। मैं तब सोचती थी कि शिक्षा के सहारे मैं अभावों को दूर कर एक अच्छी जिंदगी बसर कर सकूंगी। इसलिए अपना पूरा ध्यान मैंने पढ़ाई पर ही लगाया। पहले बीए, एमए और बी.एड. किया। हायर एज्युकेशन मेरा पहला सपना था।
जॉब का इंतजार था, पहाड़ चढ़ने लगी
हायर एज्युकेशन के बाद मैं घर में बैठी एक साल तक जॉब मिलने का इंतजार करती रही। इस बीच हमारे उत्तरकाशी में स्थित नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटनेयरिंग से मेरे बड़े भाई ने बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स में ट्रेनिंग के हिस्से के रूप में माउंटेनियरिंग की ट्रेनिंग ली थी। हालांकि, 1980 के उस दौर में लड़कियों को तो छोडि़ए, सिविलियंस में भी माउंटेनियरिंग का शौक नहीं था। हमारे यहां लड़कियों को ऐसे एडवेंचर स्पोट्र्स में जाने के लिए कोई नहीं भेजना चाहता था। इसे लड़कियोंं का स्पोर्ट ही नहीं माना जाता था। नौकरी का इंतजार करते हुए एक दिन मेरे गुरु महान माउंटेनियर कर्नल प्रेमचंद मेरे घर पर आए। वह नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटनेयरिंग के प्रिंसिपल थे। उन्होंने मुझे कहा कि पढ़ी-लिखी लड़की हो, नौकरी के इंतजार में साल खराब करने से अच्छा है कि माउंटनेयरिंग स्कूल से कोर्स ही कर लो। उनकी प्रेरणा से मैंने 1980 में अप्लाई किया तो वहां जगह नहीं था। दोबारा 1981 में एडमिशन लिया और बेसिक कोर्स किया। तब भी मेरी कल्पना में एवरेस्ट नहीं था। ट्रेनिंग के दौरान मैंने अच्छा परफॉर्म किया।
गाँव वालों को मेरा पहाड़ चढ़ना मज़ाक लगता था
बेसिक कोर्स करने के बाद एवरेस्ट पर जाने वाले एक दल में महिलाओं को भी चुना जा रहा था। मुझे भी इंडियन माउंटनेयरिंग फाउंडेशन की ओर से एक चिट्ठी मिली कि आपको प्री-एवरेस्ट एक्सपीडेशन के लिए चुना गया है, तो मुझे यकीन नहीं हुआ और मैंने कोई जवाब ही नहीं दिया। जब उनका दोबारा रिमांइडर आया, तब मैं उस चिट्ठी को लेकर अपने इंस्ट्रक्टर के पास गई, जिन्होंने मुझे ट्रेंड किया था। उनके समझाने के बाद मैंने पहली बार एवरेस्ट पर जाने का सपना देखना शुरू किया। जब मैंने एवरेस्ट को अपना लक्ष्य बना लिया, तो उसे पाने के लिए बहुत कड़ी मेहनत की। गांव वालों को यह मजाक लगता था कि एमए-बीएड पास लड़की पहाड़ चढ़ने जा रही है, क्योंकि उस जमाने में इतना पढ़ने का मौका भी हर लड़की को नहीं मिलता था। मां-पिताजी को यह तक पता नहीं था कि पव्रतारोही बनने का मतलब क्या है। वह चाहते थे कि गरीब परिवार को मैं नोकरी कर के सहारा दूं। लेकिन मैं अपने सपने को लेकर बहुत दृढ़ निश्चयी थी। आज पीछे मुड़कर देखती हूं तो खुद पर गर्व होता है कि मैंने हालात और लोगों की हतोत्साहित करने वाली बातों में आकर अपने सपने को छोड़ा नहीं। जब मुझे टाटा सेल से जॉब ऑफ हुई तो लोगां को लगा कि यह भी अवसर है, क्योंकि उस समय लोग एवरेस्ट से ज्यादा टाटा का नाम जानते थे।
स्त्री-पुरुष का भेदभाव भी बहुत देखा
बेसिक कोर्स में ए ग्रेड आने के बाद मैंने एक महीने का एडवांस कोर्स किया और इसी बीच प्री-एवरेस्ट एक्सपीडेशन के लिए चुने जाने पर उसके लिए भी ट्रेनिंग पूरी की। राष्ट्रीय स्तर के फाइनल सिलेक्शन एक्सपीडेशन में भी भाग लिया और आखिर में फाइनल टीम में सिलेक्शन हुआ, जिसमें 7 महिलाओं में भारत से मैं शामिल हुई। टीम में स्त्री-पुरुष का भेदभाव भी बहुत देखा। पुरुष सदस्य हमें जटिल कामों, ट्रेनिंग और मिशन पर नहीं ले जाते थे। महिलाओं को कमजोर मानकर हमें अक्सर हर काम में पीछे रखा जाता था। ट्रेनिंग के दौरान इस तरह के भेदभाव के बीच कुछ लोग हिम्मत भी बढ़ाते थे। मेरा मानना है कि पहाड़ काी स्त्री-पुरुष में भेदभाव नहीं करते, लेकिन हम करते हैं। बतौर महिला सदस्य अगर मैं किसी मुश्किल काम में अच्छा परफॉर्म करती थी, तो मेल ईगो भी हर्ट हो जाता था। लड़कियों ने जो भी हासिल किया है, आज खुद को साबित कर के ही पाया है। पहली बार जब एवरेस्ट पर कदम रखा तो उस अहसास को मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती। ‘हिलेरी स्टेप’ से जब चाकू की धार जैसी पतली ऐज से रस्सी के सहारे मैं चोटी पर पहुंची, तो मुझे लगा कि अब इस दुनिया में कोई भी ऊंचाई नहीं जिसे कोई लड़की छू नहीं सकती। मैं अपने साथ मां दुर्गा जी की मूर्ति और हनुमान चालीसा लेकर गई थी। जब पहली बार तिरंगा लहराया, तो खुद के साहस का अहसास हुआ। 45 मिनट वहां रहने के बाद हम लोग नीचे उतरे और तब तक पूरे नेपाल और भारत में हमारी इस उपलब्धि का चर्चा हो रहा था। तब मुझे अहसास हुआ कि मुझे अपने जैसी और महिलाओं को भी प्रेरित करना चाहिए।
50 से ज्यादा उम्र की 11 महिलाओं को लेकर की चढ़ाई
मैं आज की पीढ़ी और बुजुर्गों से भी यही कहूंगी कि स्त्री हो या पुरुष पहाड़ सबको खुली बाहों से स्वीकारते हैं। इस उम्र में भी मैं एक्टिव हूं और यही कहूंगी कि अगर मैं कर सकती हूं तो कोई भी कर सकता है। जरूरत बस अपने मन की सुनने की है। हर साल हम तीन से चार हजार लोगों को ट्रेंड करते हैं। माउंटनेयरिग से ज्यादा अनुभव देने वाली कोई दूसरी चीज नहीं हो सकती। महिला सशक्तिकरण की बातें करने वाले पहले खुद को डिस्कवर करें। माउंटनेयरिग हमें हमारी कमियों और ताकत को पहचानने में मदद करती हे। लड़कियों के लिए खुद में भरोसा होना बहुत जरूरी है और यह आता है माउंटनेयरिंग जैसे जोखिम और चुनौती भरे स्पोट्र्स से, क्यांकि लोगों को लगता है कि लड़कियां ऐसे खेल के लिए फिट नहीं हैं, लेकिनमेरा मानना है कि जिंदगी जीना भी एक एवरेस्ट ही है। अपनी जिंदगी को हिम्मत, विश्वास और आत्मसम्मान के साथ जीना तो एवरेस्ट चढऩे से भी बढ़कर है। मैं अभी मेंटोर हूं और 2018 में ‘मिशन गंगे’ किया। 2022 में 69 साल की उम्र में फिट इंडिया मूवमेंट के तहत 50 साल से ज्यादा उम्र की 11 महिलाओं को लेकर ‘ट्रांस हिमालय मिशन’ के तहत म्यांमार बॉर्डर, अरुणाचल प्रदेश से शुरू कर के लद्दाख में करगिल विजय दिवस पॉइंट तक 4500 किमी पैदल चलकर अपनी चढ़ाई पूरी की। इसका उद्देश्य था कि साठ साल की उम्र में भी हम नए-नए सपने देख सकते हैं।
बूढ़ा होने का मतलब यह नहीं की सर्रेंडर कर दो
60 साल का होने का मतलब यह नहीं कि जिंदगी के आगे सरेंडर कर दो। हम इस उम्र में भी नए ढंग से अपनी जिंदगी की शुरुआत कर सकते हैं। इस साल अक्टूबर में हम उन्हीं महिलाओं के साथ जीप सपारी और ट्रेकिंग करने जा रही हैं। 60 साल में जिंदगी पूरी नहीं होती बल्कि नया दौर शुरू होता है।
मोटिवेशन यह: साठ साल की उम्र में भी हम नए-नए सपने देख सकते हैं। 60 साल का होने का मतलब यह नहीं कि जिंदगी के आगे सरेंडर कर दो। हम इस उम्र में भी नए ढंग से अपनी जिंदगी की शुरुआत कर सकते हैं।