जयवर्धन के लिखे इस नाटक का निर्देशन डॉ. चन्द्रदीप हाडा ने किया था। नाटक का मंचन पहली बार मंचन हुआ था। नाटक में युवा विनायक दामोदर सावरकर के वीर सावरकर बनने की यात्रा को दिखाया गया। रंगमंच और मल्टीमीडिया के मिश्रण से प्री-रिकॉर्डेड संवाद और बैकग्राउंड म्यूजिक के बीच देशप्रेम में डूबे संवादों ने दर्शकों को तालियां बजाने पर विवश कर दिया। निर्देशक ने नाटक के जरिए यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि सावरकर का गांधी जी से मतभेद जरूर था, लेकिन मनभेद नहीं था और गांधी जी की हत्या का उन्हें भी दुख था।
देश के आजाद होने के बाद नाटक के एक दृश्य में जैसे ही नाथुराम गोडसे का किरदार अपना परिचय देते हुए मंच पर कदम रखता है, तालियों की गड़गड़ाहट के बीच भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारों से पूरा सभागार गूंज उठा।