पौराणिक मान्यता के अनुसार, गणगौर पूजन के माध्यम से मां पार्वती द्वारा की गई तपस्या व पूजन का अनुसरण किया जाता है। उन्होंने शिवजी की प्राप्ति के लिए घोर तप किया था। उसके बाद उन्हें पति रूप में पाया था।
गणगौर पूजन के दिन गणगौर को प्रसाद चढ़ाया जाता है। महिलाओं और बच्चियों द्वारा ही यह प्रसाद ग्रहण किया जाता है। वहीं, पुरुषों के लिए इसका निषेध है। इसका क्या कारण है? चूंकि गणगौर मुख्यत: महिलाओं का त्योहार है। यह सुयोग्य वर प्राप्ति के लिए अथवा पति के दीर्घ जीवन के लिए किया जाता है। प्रसाद को इस पूजन का फल समझा जाता है। इसलिए इसे ग्रहण करने का अधिकार सिर्फ महिलाओं को ही है। धार्मिक मान्यता के अनुसार यह पुरुषों को नहीं देना चाहिए।
गणगौर का पर्व सुहागिनें अपने पति की दीर्घायु के लिए करती हैं। उत्सव प्रारंभ होने के साथ ही महिलाएं हाथों और पैरों को मेहंदी से सजाती हैं। इसके बाद सोलह श्रृंगार के साथ गवर माता को पूजती हैं। गाती-बजाती स्त्रियां होली की राख अपने घर ले जाती हैं। मिट्टी गलाकर उससे सोलह पिंडियां बनाई जाती हैं। पूजन के स्थान पर दीवार पर ईसर और गवरी के भव्य चित्र अंकित कर दिए जाते हैं। ईसर के सामने गवरी हाथ जोड़े बैठी रहती है। ईसरजी काली दाढ़ी और राजसी पोशाक में तेजस्वी पुरुष के रूप में अंकित किए जाते हैं। मिट्टी की पिंडियों की पूजा कर दीवार पर गवरी के चित्र के नीचे सोली कुंकुम और काजल की बिंदिया लगाकर हरी दूब से पूजती हैं। साथ ही इच्छा प्राप्ति के गीत गाती हैं। दीवार पर सोलह बिंदियां कुंकुम की, सोलह बिंदिया मेहंदी की और सोलह बिंदिया काजल की रोज लगाई जाती हैं। कुंकुम, मेहंदी और काजल तीनों ही श्रृंगार की वस्तुएं हैं और सुहाग का प्रतीक भी! महादेव को पूजती कुंआरी कन्याएं मनचाहे वर प्राप्ति के लिए प्रार्थना करती हैं। अंतिम दिन भगवान शिव की प्रतिमा के साथ सुसज्जित हाथियों, घोड़ों का जुलूस और गणगौर की सवारी निकलती है, जो आकर्षण का केंद्र जाती हैं। अब राजस्थान पर्यटन विभाग की वजह से हर साल मनाए जाने वाले इस गणगौर उत्सव में कई देशी-विदेशी पर्यटक पहुंच रहे हैं।