यशवंत झारिया
कवर्धा। बोड़ला ब्लॉक मुख्य रूप से आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है। यहां की गीता यादव भारतीय महिला जूनियर हॉकी टीम का हिस्सा है। उनका यहां तक पहुंचने का सफर आसान नहीं था। गीता ने जब पांचवीं कक्षा में हॉकी खेलना शुरू किया लेकिन तब हालात यह थे कि उनके पास न तो हॉकी स्टिक थी और न ही जूते। लेकिन खेल का जुनून ऐसा कि मेहनत ने गीता को आज एक बेहतरीन मुकाम तक पहुंचा दिया है।
रूपेश मिश्रा
भोपाल। कच्ची उम्र में बच्चा खिलौने से खेलता है, मां- पिता का प्यार और दुलार पाता है। उस उम्र में खुशी राजपूत जीवन के झकझोर देने वाले हालातों से जूझ रही थीं। महज 9 साल की उम्र में मां का साया छिन गया। और ठीक दो साल बाद लकवाग्रस्त पिता का भी देहांत हो गया। खुशी कहती हैं कि सब कुछ खत्म होते आंखों के सामने देखा है। छोटा भाई भी था और कोई साथ देने को तैयार नहीं था। हॉस्टल में रहीं, जरूरत पडऩे पर दोस्तों का सहारा लिया। लेकिन हमेशा जो हो गया, सो हो गया अब जो है उसे कैसे बेहतर बनाऊं। खुद को खेलों की तरफ मोड़ लिया। छह गेम्स में नेशनल स्तर तक खेला। फुटबॉल, ऑर्चरी, फील्ड ऑर्चरी, टैंग सूडो, थाई व किक बॉक्सिंग खेलों को नेशनल तक खेल चुकी हैं।
ज्योति शर्मा
अलवर। कबड्डी खेलने के दौरान छोटे कपड़े पहनने होते हैं, जब छोटे कपड़े पहनकर गांव में खेलती तो गांव वाले कबड्डी खेलने का विरोध करते थे। हर बार यही सुनने को मिलता था बेटी को घर से बाहर खेलने में मत भेजो लेकिन मेरे माता पिता ने किसी की नहीं सुनी। यह कहना है जिले के परबैनी गांव की कबड्डी खिलाड़ी मिथलेश मीणा का। इनके पिता सीआरपीएफ में हैं। गांव और समाज के लोग पहले कबडड़ी खेलने का विरोध करते थे, इसलिए शहर में रहने लगे ।