पत्रिका : जिलों में साइबर थाने तो खोल दिए, लेकिन किसी थाने में स्टाफ नहीं तो किसी में प्रभारी नहीं है?
डीजी : पुलिस अधीक्षक के अधीन ही साइबर थाने हैं। साइबर थाने चलाने और स्टाफ उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी स्थानीय पुलिस अधीक्षक की है।
पत्रिका : कई थाने तो ऐसे हैं, जहां स्टाफ को मात्र 10 दिन का प्रशिक्षण दिया गया।
डीजी : सभी को प्रशिक्षण दिलाया जा रहा है। अभी शुरुआत है और धीरे-धीरे सभी पुलिसकर्मी प्रशिक्षित हो जाएंगे। उनकी मदद के लिए एक्सपर्ट भी हैं।
पत्रिका : साइबर थानों में परिवाद ही अधिक दर्ज किए जा रहे हैं?
डीजी : यह सही है कि साइबर थानों में साइबर अपराध की एफआईआर की बजाय परिवाद अधिक दर्ज हैं। केस दर्ज होने पर उसका लीगल अनुसंधान किया जाता है। राजस्थान पुलिस के पास इतने अनुसंधान अधिकारी नहीं है कि साइबर अपराध से जुड़े प्रकरण दर्ज कर उनका अनुसंधान किया जा सके। इसके चलते एफआईआर का रूप नहीं ले पा रहे हैं। एक्सपर्ट तैयार होने के साथ एफआईआर भी दर्ज होने लगेंगी।
पत्रिका : स्थानीय थाना पुलिस तो ऐसे मामलों को लेती ही नहीं है?
डीजी : पुलिस विभाग में कोई भी पहल होती है, उसके बाद स्थानीय थानों में गफलत हो जाती है। साइबर थाने विशेष मामलों को लेकर है। आम प्रकरण तो स्थानीय थानों में दर्ज करने चाहिए। स्थानीय थाना पुलिस को इसे समझना चाहिए।
पत्रिका : पुलिस मुख्यालय की साइबर सैल का क्या काम है?
डीजी : पुलिस मुख्यालय की साइबर सैल निगरानी रखेगी कि परिवाद की एफआईआर दर्ज हुई या नहीं। किसी भी केस के अनुसंधान में परामर्श की जरूरत हो तो पुलिस मुख्यालय से संपर्क किया जा सकता है। साइबर थाना पुलिस को ऑनलाइन केस हल करना सीखना होगा।