इसके प्रमाण आज भी मौजूद हैं, उस समय के महाकवि बिहारी ने अपनी प्रसिद्ध रचना बिहारी सतसई में पतंगबाजी का वर्णन किया है। ’गुड़ी उड़ी लखि लाल की, अंगना-अंगना मांह। बौरी लौं दौरी फिरति, छुवति छबीली छांह।’ यानी नायक की पतंग को उड़ते हुए देख कर नायिका अपने आंगन में पड़ने वाली उस पतंग की सुंदर छाया को छूने के लिए दौड़ती फिर रही है।
सवाई रामसिंह (शासन काल 1835 से 1880 तक) को पतंग उड़ाने का शौक था। 19वीं शताब्दी में उन्होंने 36 कारखाने तैयार करवाए थे, जिनमें एक कारखाना पतंगों का भी है। इसमें कई जगहों से पतंगें मंगवाकर संग्रह की जाती थीं। तब पतंगों को तुक्कल कहा जाता था, सवाई रामसिंह पतले मखमली कपड़े की चांदी-सोने के घुंघरू लगी पतंगें चन्द्रमहल की छत से उड़ाते थे, पतंग लूटने वालों को इनाम देते थे। इस परंपरा को माधोसिंह द्वितीय, मानसिंह द्वितीय ने जारी रखा।
आकार और नाम बदलते गए…
समय के साथ पतंगों का आकार और नाम बदलते गए, लेकिन पतंगबाजी का जुनून कम नहीं हुआ। जानकारों की मानें तो पहले पतंगें कपड़े और कागज की बनती थीं, अब कागज और पन्नी की पतंगें बिक रही हैं। पहले श्रीरामजी, रामदरबार, हनुमानजी, सती सावित्री, लैला-मजनूं, नल-दमयंती, चाणक्य की पतंगें उड़ती थीं, अब देश-विदेश के नेताओं, फिल्म स्टार, कार्टून और हैप्पी न्यू ईयर व मकर संक्रांति की पतंगें बिक रही हैं। पतंगें अलग-अलग आकार की भी बनने लगी हैं, बच्चों के लिए छोटी-छोटी पतंगें बाजार में बिक रही हैं। वहीं ठाकुरजी और लड्डू गोपालजी के लिए भी बाजार में चांदी की पतंगें बिक रही हैं। नवविवाहिताओं के पीहर से भी चांदी की पतंग व चरखी भेजी जा रही है।
चांदी की छोटी पतंगें 500 रुपए से लेकर 5 हजार रुपए
इस बार बाजार में चांदी की चरखी व छोटी पतंगें खूब बिकी हैं। चांदी की छोटी पतंगें 500 रुपए से लेकर 5 हजार रुपए तक की बिकी हैं, वहीं चरखी 500 रुपए से लेकर 10 हजार रुपए तक की बिकी है।
-मनीष खूंटेटा, उपाध्यक्ष, सर्राफा ट्रेडर्स कमेटी