नहाय खाय के साथ शुरु होने वाले इस व्रत पर्व में व्रती और महिलाएं 36 घंटे तक निर्जला व्रत रखती हैं, फिर सूर्य देव और छठी मइया की अराधना करती हैं। पौराणिक कथाओं के मुताबिक छठी मइया सूर्य देव की बहन हैं।
कुटुंब के सुख, समृद्धि, ऐश्वर्य और संतति की प्राप्ति और उसके सुखद भविष्य की कामना से किया जाने वाले चार दिवसीय डाला छठ व्रत अनुष्ठान का शुभारंभ सोमवार यानी आठ नवंबर से शुरू होगा। बता दें कि चार दिवसीय डाला छठ अनुष्ठान की शुरूआत नहाय खाय से होती है। नहाय खाय का अभिप्राय मन, वचन और कर्म के प्रति पूर्ण पवित्रता है। इस दिन सूर्य़ षष्ठी व्रत अनुष्ठान का संकल्प करने वाले भक्त गंगा तट, सरोवरों पर जा कर पूजन स्थल की सफाई करते हैं। मान्यता है कि स्वच्छता में कमी पर छठी मैया क्रुद्ध हो जाती हैं।
नहाय खाय के दिन व्रती और उनके परिजन घाट सफाई के दौरान गीत गाते हैं,- ‘ कोपि-कोपि बोलेलीं छठिय मइया, सुना महादेव मोरा घाटे दुबिया उपरजि गइले, मकड़ी बसेढ़ लेले..’। इस तरह से वो गंदगी का जिक्र कर उलेहना भी देते हैं और सफाई भी करते हैं। दरअसल इस अनुष्ठान में स्वच्छता का विशेष महत्व होता है, यही कारण है कि इसकी शुरूआत नहाय खाय से होती है।
नहाय खाय के अगले दिन यानी पंचमी तिथि को “खरना” होता है। इस दिन व्रती सुबह स्नान आदि से निवृत्त हो कर सूर्य की पूजा करते हैं। पूरा दिन निराजल व्रत रखा जाता है। दिन भर भजन कीर्तन होगा। फिर शाम ढलते ही चंद्रमा को अर्घ्य दान, शशि पूजन बाद बखीर (गुड़ से बनी खीर) या लौकी की खीर के साथ रोटी का सेवन किया जाता है। इसमें नमक से सर्वथा परहेज होता है। इसे ही खरना कहते है।
सूर्य देव को अर्घ्य दान के लिए ऋतु फल शरीफा, गॉगल (बड़ा नीबू), नाशपाती, सिंघाड़ा, मोसंबी, संतरा, सेब, कच्ची हल्दी, ईंख, अदरख आदि का इस्तेमाल अनिवार्य रूप से किया जाता है। फिर सबसे महत्वपूर्ण है सूर्य की आकृति वाले ठेकुआ का। यह घर पर ही बनाया जाता है. इसके लिए साफ चूल्हा (इस अनुष्ठान के लिए अलग) जो मिट्टी का हो तो अति उत्तम उसी पर पकवान बनता है।
फिर षष्ठी तिथि को 24 घंटे का कठिन व्रत होता है। खरना के बाद जो अन्न जल ग्रहण किए, फिर वह सप्तमी को उदीयमान सूर्य को अर्घ्य के बाद ही प्रसाद ग्रहण किया जाता है। षष्ठी को खर उपवास के बाद शाम को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य दान होता है। यह क्रिया इस बार 10 नवंबर को की जाएगी।
डाला छठ की पूजा में सबसे पहले दीप प्रज्ज्वलित किया जाएगा। उसे सूप में रखा जाएगा। व्रती सूप में दीप के सात ऋतु फल, विविध पकवान, खास तौर पर ठेकुआ, मीठा, पुष्प, माला, नारियल आदि रख कर कच्चे दूध से अर्घ्य देंगे।
भगवान भास्कर का इस मंत्र से करें ध्यान
‘ ऊं नमः सवित्रे जगदेकचक्शुवे जगत्प्रसूतिस्थ नाश हेतवे। त्रयी मनया त्रिगुणात्म धारिणे विरिचिं नारायण शंकरात्मने।’ सूर्य देव के द्वादश नाम का करेंगे उच्चारण इस मंत्र का उच्चारण करते हुए व्रती गंगा या सरोवर में स्नान के बाद गीले बदन कमर तक जल में खड़े हो कर सूर्य के द्वादश नाम (12 नाम)- “सूर्याय नमः, दिवाकराय नमः, भास्कराय नमः, रविकराय नमः, खगाय नमः, ऊष्णवे नमः, हिरण्यगर्भाय नमः प्रभाकराय नमः, भनवे नमः, आदि देवाय नमः, पूष्णवे नमः, मित्राय नमः” इन नामों का उच्चारण करते हुए सूर्य देव को अर्घ्य देंगे।
अर्घ्य दान के पश्चात गंगा में दीप दान होगा। फिर जलते दीपक व अन्य पूजन सामग्री को दऊरा में रख कर लोग घरों को लौटेंगे। हालांकि कुछ व्रती पूरी रात घाट या सरोवर के तट पर ही बिताते हैं। भजन कीर्तन होता है। इंतजार होता है सप्तमी के उगते सूर्य का। सप्तमी की सुबह पूर्व दिशा में लालिमा देखते ही शुरू हो जाती है पूजन प्रक्रिया। उदीयमान सूर्य को 11 नवंबर को अर्घ्य दिया जाएगा। इसके साथ ही चार दिवसीय व्रत अनुष्ठान की पूर्णाहुति होगी।
बता दें कि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाने वाल इस महापर्व की छटा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में अलग ही धूम देखने को मिलती है। सूर्योदय और सूर्यास्त का समय
सूर्योदय समय – सुबह 6:40
सूर्यास्त समय – शाम 5:30