साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक ऐतिहासिक फैसले ने मतदाताओं को नोटा का विकल्प उपलब्ध करवाया। जिसके अनुसार अगर कोई मतदाता किसी भी उम्मीदवार को वोट नहीं देना चाहता तो वो नोटा को अपना वोट देकर चुनावी मैदान में उतरे सभी प्रत्याशियों को नापसंद करने की शक्ति दिखा सकता है।
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अगर किसी इलाके में सभी उम्मीदवारों के मुकाबले नोटा को अधिक वोट मिल जाते हैं तो नियम 64 के अनुसार जिस उम्मीदवार को सर्वाधिक वोट मिले हैं, उसे चुनाव आयोग विजयी घोषित करता है। इसके अलावा अगर 99 फीसदी मत भी नोटा को मिलते हैं तो भी इसका चुनाव पर कोई असर नहीं होगा। इस परिस्थिति में किसी उम्मीदवार को एक प्रतिशत भी वोट मिले हैं तो भी वही निर्वाचित होगा।
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संविधानिक हितों के जानकारों की मानें तो मौजूदा समय में नोटा का कोई असर नहीं है। ये विकल्प असरदार तब होगा जब कोई ऐसा कानून बने कि नोटा को सर्वाधिक मतदान मिलने पर अन्य उम्मीदवार अयोग्य घोषित हो जाएं। चुनाव प्रक्रिया दोबारा हो। साथ ही चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवार दोबारा चुनाव न लड़ सकें तभी नोटा का उद्देश्य सिद्ध होगा। हालांकि नोटा का एक उद्देश्य रहता है, उसकी चर्चा भी होती है। नोटा बेकार तो नहीं है, लेकिन उसका असर नहीं है। अगर नोटा के जीतने पर चुनाव निरस्त कर दिए जाएं, तो उसका उद्देश्य सफल होगा।