ऐसे होता है काम जितेंद्र ने इस बार जून में चार बीघा में राजापुरी, बाईगांव, प्रगति, चिन्ना सेलम, आंबा हल्दी, काली हल्दी और पितांबरी हल्दी वैरायटी लगाई है। 24 इंच की जगह छोड़ हल्दी के गाठं बोई गई। खाली जगह में ढैंचा पौधा लगाया। वर्तमान में हल्दी और ढैंचा का पौधा एक-एक फिट के हो चुके है। लेकिन अभी तक एक भी किट ने हल्दी की फसल को नुकसान नहीं पहुंचाया है। किट होते भी है तो ढैंचा के पौधा को खुराक बना रहे है। ढैंचा के पौध 3 फीट के होने पर उन्हें उखाड़कर उसी जगह पर डाल दिया जाएगा, जिससे यहां डलने वाली वर्मी कंपोस्ट के बाद केचुंए उन्हे आहार बनाएंगे। 8 माह तक यह फसल तैयार हो जाएगी।
यह हो रहा फायदा इस प्रयोग से जमीन में नाइट्रोजन की पूर्ति होती है। मुख्य फसल को किट नहीं खाते। जमीन में आर्गेनिक कार्बन की बढ़ोतरी होती है। कचुओं की संख्या बढ़ती है। खास बता यह कि फसल के साथ खतपतवार नहीं उगती। यूरिया में 45 फीसदी नाइट्रोजन होता है। जबकि ढैंचा को पौधा वायुमंडल से जरूरत के लिहाज से खुद की नाइट्रोजन बनाकर जमीन में छोड़ देता है।
वर्जन इस तरह की खेती की शुरूआत जितेंद्र पाटीदार ने है। अब ब्लाक में अन्य किसानों को इस तरह की खेती की ट्रेनिंग दी जा रही है। ढैंचा के साथ फसल लगाने पर बेहतर परिणाम आ रहे है।
-आरएनएस तोमर, वरिष्ठ कृषि विकास अधिकारी महू