जन्म : 4 अप्रेल 1889 (बाबई)
निधन
30 जनवरी 1968
प्रमुख प्रकाशन
कृष्णार्जुन युद्ध, साहित्य के देवता, समय के पांव, अमीर इरादे: गरीब इरादे, हिमकिरीटिनी, हिम तरंगिनी, माता, युग चरण, समर्पण, मरण ज्वार, वेणु लो गूंजे धरा, बीजुरी काजल आंज रही।
कालजयी कविता
‘चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं, चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊं।
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊं, चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ भाग्य पर इठलाऊं।
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ में देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक।
(पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने जेल से छूटकर आने पर गणेश शंकर विद्यार्थी
के विचार मांगने पर ये पंक्तियां सुनाईं। पहला प्रकाशन 10 अप्रेल 1922)
राष्ट्र कवि के जन्म स्थान होने से बाबई को देश और दुनिया में पहचान मिली हो, लेकिन क्षेत्र का नाम उनके नाम पर रखने की मांग अभी भी जारी है। लोग बोलचाल में माखननगर कहते हैं, लेकिन आधिकारिक रूप से क्षेत्र का नाम नहीं बदल पाया। 37 साल पहले वर्ष 1984 में भी मप्र विधानसभा में पक्ष और विपक्ष दोनों ने करतल ध्वनि के साथ प्रस्ताव पास कर दिल्ली भेजा, तब से अब तक शासकीय दस्तावेज में बाबई का नामकरण माखननगर नहीं हुआ। शासन ने पिछले साल यह प्रस्ताव फिर दिल्ली भेजा। वे बाबई के शासकीय उत्तर बुनियादीशाला में पढ़े। स्कूल का नाम बुनियादी शाला इसलिए है, क्योंकि स्कूल में शैक्षणिक गतिविधियों के साथ ही अन्य रोजगारोन्मुखी कार्यों की शिक्षा भी दी जाती थी। पिता भी इसी स्कूल में शिक्षक थे। वर्ष 1830 में स्कूल की स्थापना की गई। इस स्कूल परिसर में राष्ट्र कवि की स्मृतियों में 192 साल पुराना यह जर्जर स्कूल भवन हैं। वह भी गिरने की कगार पर है। विभाग ने परिसर में नए भवन बनाए हैं। जल्द ही यह भवन भी गिर जाएगा, क्योंकि इसके समय बने भवन का एक हिस्सा पहले ही गिर चुका है। स्कूल के शिक्षक अविष्कार शर्मा ने बताया कि शासन स्कूल को एक शाला एक परिसर के लिए विकसित कर रहा है। इसलिए अब स्कूल का नाम भी बदल जाएगा। इसलिए समय रहते इसका नाम दादा के नाम पर करने की बात करनी चाहिए। बाबई में आदमकद प्रतिमा लगाई है। इसके नाम पर 3 सितंबर 1984 में कॉलेज बनाया गया। एक वाचनालय भी संचालित हो रही है। रहवासी चाहते हैं कि उनके जन्मस्थान पर संग्रहालय बनाया जाए। पं. माखनलाल के नाती धु्रवकुमार तिवारी कहते हैं कि 4 अप्रेल को जयंती पर हर साल बाबई में शोभायात्रा निकाली जाती थी। शोभायात्रा में तस्वीर वाहन पर लगाकर बैंड बाजे की धुन पर लोग नगर भ्रमण करते थे। उनके जन्मस्थान पर जाकर मिठाइयां बांटी जाती थी। यह आयोजन पिछले 20 साल से बंद है।
महान संपादक पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी पत्रकारिता के माध्यम से आंदोलन चलाए। वर्ष 1920 में सागर के समीप रतौना में ब्रिटिश सरकार ने कसाईखाना खोलने का निर्णय लिया। इसमें प्रतिमाह ढाई लाख गोवंश कत्ल की योजना थी। इसके लिए चार पृष्ठ का विज्ञापन अंग्रेजी अखबार हितवाद में प्रकाशित हुआ। 100 वर्ष पूर्व लागत 40 लाख थी, इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि कसाईखाना कितना बड़ा था, वहां तक रेल लाइन डाली, तालाब खुदवाए और प्रबंधन अमेरिकी कंपनी को सौंप दिया। यह कंपनी ब्रिटिश सरकार से डिब्बाबंद बीफ निर्यात की अनुमति भी ले चुकी थी। अपनी यात्रा के दौरान माखन दादा ने विज्ञापन पढ़ लिया। वे यात्रा खत्म कर जबलपुर लौटे और कर्मवीर में कसाईखाने के विरोध में तीखा संपादकीय लिखकर आंदोलन का आह्वान किया। अन्य समाचार पत्रों ने भी इसके विरोध में लिखा। दादा की पत्रकारिता का प्रभाव था कि मध्यभारत में अंग्रेजों की पहली हार हुई। तीन माह में ही अंग्रेजों को निर्णय वापस लेना पड़ा।
स्वतंत्रता आंदोलन के समय अंग्रेजी शासन भाषाई पत्रकारिता से डरा हुआ था। इन पर प्रतिबंध के लिए तमाम प्रयास कर रखे थे। समाचार पत्र प्रकाशित करने से पहले अनुमति पत्र जिला मजिस्ट्रेट से प्राप्त करनी होती थी। प्रकाशन का उद्देश्य स्पष्ट करना होता था। इसी संदर्भ में जब माखनलालजी कर्मवीर के घोषणा पत्र की व्याख्या करने जबलपुर गए। जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर मिथाइस आइसीएस के पास जाते समय रायबहादुर शुक्ल ने एक पत्र माखनलाल जी को दिया, जिसमें लिखा था कि मैं बहुत गरीब आदमी हूं, और उदरपूर्ति के लिए कोई रोजगार करने कर्मवीर नामक साप्ताहिक पत्र निकालना चाहता हूं। रायबहादुर शुक्ल समझ रहे थे कि मजिस्ट्रेट के सामने माखनलाल जी कुछ बोल नहीं पाएंगे तो यह आवेदन देकर अनुमति पत्र प्राप्त कर लेंगे। किंतु, दादा ने यह आवेदन मजिस्ट्रेट को नहीं किया। जब मिथाइस ने पूछा कि एक अंग्रेजी साप्ताहिक होते हुए आप हिन्दी साप्ताहिक क्यों निकालना चाह रहे हैं? तब माखन दादा ने कहा- ‘आपका अंग्रेजी पत्र तो दब्बू है। मैं वैसा पत्र नहीं निकालना चाहता। मैं ऐसा पत्र निकालना चाहूंगा कि ब्रिटिश शासन चलते-चलते रुक जाए।’ मिथाइस उनकी साफगोई से प्रभावित हुए और बिना जमानत राशि कर्मवीर निकालने की अनुमति दे दी।
माखन दादा के साहित्य में राष्ट्र के प्रति अगाध प्रेम कूट-कूट कर भरा हुआ है। उनकी कविता की हर पंक्ति में उन्होंने मातृभूमि की विशेषताओं का बारीकी से वर्णन किया है। दादा के काव्य में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी का जिक्र आता है। उनकी कविताओं की पंक्तियों में पहाड़ी नदी अलकनंदा से लेकर हिमालय का महान पर्वत, सतपुड़ा और विंध्य की पहाडिय़ों की शृंखलाओं का वर्णन है। उन्होंने राधा और कृष्ण हैं, पचमढ़ी का प्रसंग उनकी कविताओं में आता है तो नर्मदा और गंगा भी उनकी कविताओं का महत्वपूर्ण विषय हैं। अपने देश के हर तत्व का वर्णन वे देशप्रेम की सीख देने वाली कविताओं को गढऩे के लिए करते हैं। पूरब से लेकर पश्चिमी और उत्तर से लेकर दक्षिणी भारत के अनेकानेक संदर्भ उनके काव्य में झलकते हैं। वे भारत के कण-कण को जानते थे। इसीलिए उन्हें ‘एक भारतीय आत्माÓ सच जान पड़ता है। वे भारत और भारत की धरती, इसके पहाड़ों, नदियों, गांवों का बार-बार संदर्भ लाते हैं। निश्चित ही वे अपने देश के प्रति अगाध प्रेम रखने वाले कविहृदय देशप्रेमी थी। उनके काव्य में देशप्रेमहर तरफ परिलक्षित होता है। उनका कालजयी काव्य आज भी साहित्य का गौरव बढ़ाते हुए हर भारतीय को आजादी के अमृत का संदेश देता है।
हिंदी के लिए लौटा दिया पद्मभूषण
माखनलाल चतुर्वेदी कविता के मामले में मैथिलीशरण गुप्त को गुरु मानते थे और 1916 में पहली मुलाकात लखनऊ में हुई। 1963 में भारत सरकार ने दादा को ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया, लेकिन राष्ट्रभाषा हिन्दी पर आघात करने वाले राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में 10 सितंबर 1967 को माखनलाल चतुर्वेदी ने अलंकरण लौटा दिया।
माधवराव सप्रे संग्रहालय के संस्थापक विजय दत्त श्रीधर का कहना है कि 79 वर्षीय जीवन के सुदीर्घ 46 साल दादा ने पत्रकारिता को समर्पित किए। माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का समारंभ 1907 में तब हुआ जब वे खंडवा में अध्यापक थे। एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली-‘भारतीय विद्यार्थी,’ जिसने सुधीजनों का खासा ध्यान आकर्षित किया। 1908 में माधवराव सप्रे द्वारा सुसंपादित ‘हिन्दी केसरी, की ‘राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार’ शीर्षक से निबंध प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार दादा को मिला और यहीं से माधवराव सप्रे और दादा के बीच गुरु-शिष्य का जो रिश्ता कायम हुआ, वह अंतिम श्वासों तक न केवल बरकरार रहा, बल्कि एक पत्रकार के रूप में दादा के यश-सौरभ का बीच बिंदु भी बना, यद्यपि दोनों की प्रत्यक्ष भेंट 1911 में हो सकी। खंडवा के वकील कालूराम गंगराड़े ने 7 अप्रैल, 1913 को हिंदी मासिक ‘प्रभा’ का प्रकाशन आरंभ किया, तब दादा ही उसके संपादक बनाए गए। माखनलालजी को मानो अपना मार्ग मिल गया। 26 सितंबर, 1913 को दादा ने अध्यापक की नौकरी से किनारा कर लिया और यहीं से पूर्णकालिक पत्रकारिता का उनके जीवन का दुर्गम किंतु प्रखर अध्याय प्रारम्भ हो गया। दादा की पत्रकारिता के तेवर ‘कर्मवीर’ (1920 ) से भी पहले ‘प्रभा’ में ही बेबाकी के साथ मुखर हो उठे थे। भाषा, भाव और संकल्प की यह ताजगी और रवानी अंत तक दादा की पत्रकारिता की अकूत निधि बनी रही। 1915 में ‘प्रभा’ के प्रकाशन में व्यवधान आ गया। लेकिन इस वर्ष दादा के खजाने में बंधुता का एक दुर्लभ रत्न आ जुड़ा- श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के रूप में, जो कानपुर से तेजस्वी ‘प्रताप’ निकाल रहे थे। उन्हीं ने 1920 में ‘प्रभा’ का कानपुर से पुनप्र्रकाशन किया और इसी वर्ष जबलपुर में ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन हुआ।
माखन लाल चतुर्वेदी के काव्य संसार पर शोधकर्ता और कर्मवीर विद्यापीठ खंडवा के निदेशक संदीप भट्ट बताते हैं कि माखनलाल चतुर्वेदी जी के पुण्यस्मरण पर उनके साहित्य और पत्रकारिता के गौरवशाली इतिहास से गुजरना अतुल्य अनुभव है। देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, इसे हासिल करने में स्वाधीनता सेनानियों का अतुलनीय योगदान है। ऐसे ही एक महानायक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी भी थे। उन्होंने लेखन और पत्रकारिता में देशभक्ति को सर्वोच्च स्थान दिया। वे अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने गांधी और क्रांति को साथ लेकर चले। पराधीन भारत में देशवासियों से गुलामी के विरोध में एकजुट होकर लडऩे का सतत आग्रह किया। उनका समाचार पत्र ‘कर्मवीर’ आज भी पत्रकारिता और मीडिया जगत का आदर्श स्तंभ है। उनकी पत्रकारिता और लेखनी अपने सर्वोच्च मानदंडों से हमारा मार्ग प्रशस्त करती है। कर्मवीर के पुन: प्रकाशन पर उन्होंने आह्वान किया, ‘आइए, गरीब और अमीर, किसान और मजदूर, उच्च और नीच, जीत और पराजित के भेदों को ठुकराइए। प्रदेश में राष्ट्रीय ज्वाला जगाइए और देश तथा संसार के सामने अपनी शक्तियों को ऐसा प्रमाणित कीजिए, जिसका आने वाली संतान स्वतंत्र भारत के रूप में गर्व करें। वे कू्रर और तानाशाह अंग्रेज सरकार से निडर होकर देशभक्ति के कार्यों में अग्रणी रहे। आज देश में स्वराज है। हम आजाद हैं, लेकिन उनके विचार, संपादकीय टिप्पणियों मे व्यक्त दर्शन नई पीढ़ी के लिए आज अधिक प्रासंगिक है। दादा के राष्ट्र और समाज के कल्याण, उन्नति के प्रति व्यक्त विचारों को आज आत्मसात करें तो देश की अनगिनत समस्यों का सहज समाधान मिल जाएगा। नैतिक, सामाजिक, मानवीय संवेदनाओं से भरे मूल्यों तथा अगाध देशप्रेम के विचारों को हर भारतीय को जीवन में उतारना चाहिए।