रोगों की पहचान
इस विधा में नब्ज, चेहरा, जीभ, आंखों, सुबह के यूरिन की जांच व मरीज से बातचीत के आधार पर रोग का पता लगाया जाता है। इस पद्धति में यूरिन टेस्ट किया जाता है, जिसमें जांचकर्ता यूरिन को एक विशेष उपकरण से बार-बार हिलाते हैं, जिससे बुलबुले बनते हैं। उन बुलबुलों के आकार को देखकर रोग की पहचान व गंभीरता का पता लगाया जाता है। इसके अलावा यूरिन की गंध व रंग से भी विशेषज्ञ बीमारी के बारे में जानते हैं।
सोने-चांदी-मोती की भस्म से दवा
सोआ-रिग्पा विधा में अधिकतर दवाइयां हिमालय क्षेत्र में उगने वाली जड़ी-बूटियों के अर्क से तैयार होती हैं, क्योंकि इस क्षेत्र की मिट्टी में अधिक मात्रा में मिनरल्स और खनिज तत्व होते हैं। कैंसर, डायबिटीज, हृदय रोगों और आर्थराइटिस जैसी गंभीर बीमारियों में मिनरल्स का अधिक प्रयोग होता है। कुछ में सोना-चांदी और मोतियों की भस्म भी मिलाई जाती है। इस पद्धति में दवाएं, गोलियों और सिरप के रूप में होती हैं।
आयुर्वेद में औषधीय पौधे के सभी हिस्सों को इस्तेमाल किया जाता है, जबकि इसमें औषधीय पौधों से केवल अर्क निकालकर दवा बनाते हैं। इसमें इलाज के साथ एलोपैथी, यूनानी, आयुर्वेदिक या होम्योपैथिक दवा भी ली जा सकती हैं। इसमें परहेज कुछ ही बीमारियों में करना होता है। डायबिटीज में भी मीठा खाने से परहेज नहीं है।
हल्की-फुल्की सर्जरी
इस पद्धति में ऑपरेशन नहीं होता, लेकिन कुछ खास रोगों में छोटी सर्जरी की जाती है। जैसे, आर्थराइटिस में घुटने में कट लगाकर दूषित खून को बाहर निकाला जाता है। एक्यूपंक्चर से भी इलाज किया जाता है।
विधा का सिद्धांत
आयुर्वेद की तरह इस पद्धति में तीन दोष होते हैं, जिन्हें लूंग, खारिसपा और बैडकन कहते हैं। विशेषज्ञ जांच के समय इन तीनों को ध्यान में रखते हैं। इस पद्धति में रोग को जड़ से खत्म करने पर जोर रहता है, इसलिए इलाज लंबा चलता है। मेडिटेशन भी इसका एक हिस्सा है।