श्री दाऊजी महाराज मंदिर का निर्माण सन् 1770 से 1775 के बीच राजा दयाराम ने कराया था। राजा दयाराम भारत के सबसे पहले स्वतंत्रता सेनानी थे। यह मेला सन् 1912 में तत्कालीन तहसीलदार श्यामलाल ने लगवाया था। कहा जाता है कि श्यामलाल का बेटा बीमार हो गया था। उन्हें सपना आया कि वो दाऊजी महाराज की पूजा अर्चना के साथ किला क्षेत्र में मेले का आयोजन कराएं। ऐसा करने से उनका बेटा स्वस्थ हो गया। तभी से यहां प्रतिवर्ष इस मेले का आयोजन होता है। अब यह मेला दाऊजी महोत्सव के रूप में तब्दील हो गया है। यह महोत्सव लगभग 20 दिन तक चलता है। जिसमें देश के कई बड़े बड़े कलाकार प्रतिभाग करते हैं।
मेला श्री दाऊजी महाराज को लक्खी मेला के नाम से भी जाना जाता है। इस मेले की शुरुआत बाबा काले खां की मजार से होती है। दाऊजी के मंदिर पर ध्वजा से पहले काले खां की मजार पर चादर चढ़ाई जाती है। यहां तक कि मंदिर पर पुताई होने से पहले मजार पर पुताई और साफ़ सफाई होती है। मजार पर चादर चढ़ाने के बाद देवछट को विधिवत मेले का उद्घाटन होता है। कहा जाता है कि काले खां और दाऊजी महाराज के बीच घनिष्ठ मित्रता थी। इस मेला परिसर में एक छोर पर दाऊजी महाराज का मंदिर है तो दूसरी ओर काले खां की मजार है। सभी धर्मों के लोग मंदिर के दर्शन करते हैं तो वहीं मजार पर मत्था भी जरूर टेकते हैं।
इस मेले को देखने के लिए दूर दराज से लोग आते हैं। मेले में विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। मेले में हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही दाऊजी के मंदिर जाते हैं। मेले में कोई भेदभाव नहीं होता है। लक्खी मेले से आमजनों में हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश जाता है।
बताया जाता है कि अंग्रेजों ने श्री दाऊजी महाराज मंदिर पर तोप से गोले दागे थे, लेकिन इस मंदिर का कुछ न बिगाड़ सके। मंदिर के गुम्बद में आज भी तोप के दागे गए गोलों के निशान हैं। वहीं मंदिर में एक गोला सुरक्षित रखा हुआ है और एक गोला पुरातत्व विभाग को दे दिया गया। तीन गोले अभी मंदिर के गुम्बद में फंसे हुए हैं।
पिछले कुछ वर्षो से इस मेले ने राजनैतिक रूप ले लिया है। प्रदेश में जिस पार्टी की सत्ता होती है। उस पार्टी के नेताओं की इस मेले में ज्यादा पकड़ होती है। जिला प्रशासन उन्हीं नेताओं के हिसाब से मेले में कार्यक्रमों का आयोजन कराते हैं और प्रदेश और केंद्र स्तर के नेता कार्यक्रमों में अतिथि बनकर आते हैं।