पुलिस कंट्रोल रूम के सामने बायपास रोड पर रहने वाले विवेक सक्सेना ने बताया कि मेरी छह साल की बेटी भूमिका के सीने में जब रात को दर्द उठा तो पत्नी के साथ बेटी को लेकर जिला अस्पताल पहुंचा। यहां पर उन्होंने 20 रुपए का पर्चा बनवाया। बकौल विवेक व उनकी पत्नी, बेटी की जांच करने के बाद जब डॉक्टर से पूछा कि बीमारी क्या है, तो उन्होंने एटीपी जैसा कोई शब्द बताया। जब विवेक ने इस बीमारी का फुल फार्म व उसका साधारण भाषा में नाम पूछा तो डॉक्टर ने कहा कि इसका नाम मुझे भी पता नहीं है, डिक्शनरी में देखकर बताऊंगा।
इस दौरान डॉक्टर ने पर्चे पर कुछ दवा भी लिख दी। बीमारी का नाम पता न चलने से सक्सेना दंपती पहले से ही परेशान थे और जब वे दवा का पर्चा लेकर अस्पताल चौराहे के एक मेडिकल स्टोर पर पहुंचे तो वहां मेडिकल स्टोर वाले ने कहा कि इसमें कौन सी दवा लिखी है, मुझे समझ ही नहीं आ रहा। यानि डॉक्टर की लिखी दवा भी उस बच्ची को नहीं मिल सकी। बाद में मेडिकल स्टोर वाले ने तकलीफ देखकर अपने हिसाब से दवा दे दी। विवेक का कहना है कि हम तो इलाज की उम्मीद से जिला अस्पताल गए थे, लेकिन वहां तो हमारे 20 रुपए भी खर्च हो गए और इलाज के नाम कुछ नहीं मिला।
ऐसे कार्य समाज हित में नहीं
डॉक्टर का भगवान का रूप माना जाता है, ऐसे में यदि डॉक्टर इस तरह का व्यवहार मरीज व अटेंडर के साथ करेंगे तो उनकी छवि पर विपरीत असर पड़ेगा।
पता करेंगे क्यों किया डॉक्टर ने ऐसा व्यवहार
अस्पताल के डॉक्टर जेनरिक दवा लिखते हैं, जबकि मेडिकल स्टोर वाले ब्रांड के नाम से दवा समझ पाते हैं। फिर भी मैं पता करवाता हंू कि उस समय नाइट ड्यूटी में कौन था और पेशेंट के परिजनों से ऐसी बातचीत क्यों हुई?।
डॉ. पीके खरे, सिविल सर्जन जिला अस्पताल