मंदिर के व्यवस्थापक यशवंत राव मांढरे बताते हैं कि मेरे पूर्वज आनंद राव मांढरे, सिंधिया स्टेट में कर्नल थे। वे मां दुर्गा के अनंत भक्त थे। तात्कालीन महाराज जीवाजी राव सिंधिया ने मेरे पूर्वज को उन क्षेत्रों की कर वसूली का जिम्मा दिया था, जिन क्षेत्रों से कर वसूली नहीं हो पाती थी। इस दौरान उन्हें कई जगह युद्ध करना पड़ा। युद्ध मार-काट के दौरान कई बार दुर्गा भवानी का उन्हें साक्षात्कार हुआ। इसके बाद उन्होंने सब कुछ छोड़कर मां की पूजा-अर्चना शुरू कर दी।
यहां अष्टभुजाधारी काली दुर्गा की स्थापना की। इस देवी को तात्कालीन महाराज ने मांढरे की माता के नाम से पुकारना शुरू किया और अपनी कुलदेवी के तौर पर पूजना शुरू कर दिया था। इस मंदिर की स्थापना संवत १९३० में की गई थी। मां का यह स्वरूप काली का है। मां का शृंगार उसी तरह किया जाता है, जिस तरह योद्धा रणभूमि में जाता है। मां को नौ गज की साड़ी (सोलह हाथ) पहनाई जाती है।
मां का यह स्वरूप रण क्षेत्र में युद्ध के दौरान का है। मां को सोने का मुकुट, चांदी की पायल आदि से शृंगार किया जाता है। यहां मां के पट सुबह ब्रह्म
मुहूर्त में खुल जाते हैं और २ बजे तक श्रद्धालुओं को दर्शन मिलते हैं। इन दिनों मां सिर्फ दो घंटे ही विश्राम करती हैं।