न्यायमूर्ति मिश्रा ने जीडीए के अधिवक्ता राघवेन्द्र दीक्षित द्वारा प्रस्तुत तर्कों से सहमत होते हुए विचारण न्यायालय के निर्णय के प्रभाव को स्थगित कर दिया। इसके साथ ही न्यायालय ने अपील पर सुनवाई के लिए विधि के प्रश्न भी तय कर दिए हैं। अब इन प्रश्नों पर बहस होगी। जीडीए को पक्षकार बनाए बिना कर दी थी डिक्री ग्राम सिरोल की सर्वे क्रमांक 50, 51 तथा 65/1 की 14 बीघा 15 बिस्वा जमीन के संबंध में व्यवहार न्यायाधीश आरबी यादव द्वारा मौखिक साक्ष्य एवं राधेलाल द्वारा प्रस्तुत फर्जी दस्तावेजों के आधार राधेलाल आदिवासी के पक्ष में 8 मार्च 2010 को डिक्री पारित की गई थी। इसके खिलाफ जीडीए ने एडीजे कोर्ट में अपील की थी।
अपील कोर्ट के न्यायाधीश ऋतुराज सिंह चौहान ने जीडीए की अपील यह कहते हुए खारिज कर दी थी कि इस मामले में राधेलाल द्वारा उच्च न्यायालय में जो याचिका प्रस्तुत की गई थी, उसमें 16 सितंबर 11 को उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि कलेक्टर राधेलाल के आवेदन का निराकरण करें। जीडीए व शासन द्वारा इस मामले में वह सभी दस्तावेज न्यायालय में पेश किए थे, जिनमें जमीन को शासकीय बताया गया था। न्यायालय के आदेश पर तत्कालीन कलेक्टर भरत यादव ने जमीन से संबंधित प्रत्येक बिंदु को स्पष्ट करते हुए जमीन को शासकीय घोषित कर अपने आदेश में कहा कि फर्जी दस्तावेजों से राधेलाल के कानूनी अधिकार उत्पन्न नहीं हो सकते। कलेक्टर न्यायालय ने राधेलाल के अभ्यावेदन को खारिज कर दिया था। धोखाधड़ी के आरोपी के खिलाफ न्यायालय ने अखबारों में इश्तहार भी छपवाया, लेकिन वह न्यायालय में हाजिर नहीं हुआ था।
केवल एक आरोपी हुआ गिरफ्तार जीडीए द्वारा एडीजे कोर्ट के आदेश के खिलाफ यह अपील प्रस्तुत की गई है, जिसमें तत्कालीन कलेक्टर भरत यादव द्वारा दिए गए आदेश को पेश करते हुए कहा गया कि राधेलाल ने फर्जी दस्तावेजों के आधार पर डिक्री प्राप्त की है, इस कारण आरोपी के खिलाफ शासन द्वारा एफआईआर दर्ज कराई गई। इस मामले में पुलिस केवल एक आरोपी को ही गिरफ्तार कर सकी।
शासन ने 2006 में जीडीए को दी थी जमीन
जीडीए के अधिवक्ता राघवेन्द्र दीक्षित ने न्यायालय को बताया कि जिस जमीन पर डिक्री की गई है, वह शासन ने जीडीए को 11 अगस्त 2006 को हस्तांतरित की थी। जिसका गजट नोटिफिकेशन भी किया गया था। तत्कालीन शासन के अधिकारियों ने इस मामले में दस्तावेज पेश नहीं किए। शासन की ओर से शासकीय अधिवक्ता जगदीश शर्मा ने इस मामले में पैरवी की थी। जिस पट्टे को भूमिस्वामी बताते हुए पेश किया गया था वह शासन की ओर से कभी जारी नहीं किया गया, उसकी भी फोटो कॉपी पेश की गई थी।