scriptBakrid Eid-Ul- Adha 2018 : चांद नजर आया, 22 को मनाई जाएगी ईद-उल-अजहा, बकरों के बाजार सजे | Moon of Zilhijja sighted eidul Adha will be celebrated on 22 august | Patrika News
गाज़ियाबाद

Bakrid Eid-Ul- Adha 2018 : चांद नजर आया, 22 को मनाई जाएगी ईद-उल-अजहा, बकरों के बाजार सजे

Bakra Eid 2018 : ईद-उल-अजहा यानी बकरीद 22 अगस्त को मनाई जाएगी। मरकजी चांद कमिटी ने रविवार देर रात चांद देखे जाने का ऐलान किया।

गाज़ियाबादAug 15, 2018 / 04:30 pm

Iftekhar

Moon of Eid-Ul-Azha

चांद नजर आया, 22 को मनाई जाएगी ईद-उल-अजहा, बकरों के बाजार सजे

गाजियाबाद. ईद-उल-अजहा यानी bakrid 22 अगस्त को मनाई जाएगी। मरकजी चांद कमिटी ने रविवार देर रात चांद देखे जाने का ऐलान किया। हालांकि, बारिश का मौसम होने के कारण कई शहरों में चांद नहीं दिखा, लेकिन गुजरात और आंध्र प्रदेश समेत कई राज्यों के बड़े शहरों में चांद देखे जाने की सूचना के आधार पर यह ऐलान किया गया कि पूरे देश में 22 अगस्त को ईद-उल-अजहा मनाई जाएगी। Eid-ul-Adha का चांद देखने के साथ ही शहर और गावों के साप्ताहिक हाट-बाजारों में चहल-पहल बढ़ गई है। इन बाजारों में बड़ी संख्या में बकरों की खरीद-फरोख्त देखने को मिल रही है। साप्ताहिक हाटों में बड़ी संख्या में लोग बकरे बेचने के लिए लेकर आ रहे हैं। इसके बावजूद बकरों के दाम आसमान छू रहे हैं। आपको बता दें कि बाजारों में बकरे 12 हजार से लेकर लाखों के बकरे भी लोक लेकर आ रहे हैं।

हज के दौरान पत्थर मारने की रस्म का रहस्य जानकर चौंक जाएंगे आप

गौरतलब है कि ईद-उल-अजहा (Bakra Eid) हज से जुड़ा त्योहार है। हज इस्लाम धर्म के 5 प्रमुख स्तंभों में से एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। हर मालदार मुसलमान पर जिंदगी में एक बार हज करना फर्ज है। हज सऊदी अरब के मक्का शहर में बने काबा शरीफ यानी दुनिया की पहली मस्जिद में किया जाता है। हज इस्लामिक कैलेंडर (Islamic Calaender) के मुताबिक साल के आखिरी महीने जिलहिज्जा की 8 वीं से 12 वीं तारीख तक की जाती है। हज के दौरान एक निश्चित स्थान पर एहराम यानी बिना सिले सफेद कपड़े धारण करते हैं। काबा शरीफ पहुंचकर वहां काबे का तवाफ़ यानी परिक्रमा करते हैं। हज के दौरान हाजी सफ़ा और मरवा की सई करते हैं यानी इन दोनों पहाड़ियों के बीच दौड़ते हैं। चूकि हजरत इब्राहीम की पत्नी हाजरा इसी जगह पर अपने बच्चे को रखकर दोनों ही पहाड़ियों के बीच पानी के लिए कई बार दौड़ी थी। लिहाजा उन्ही की याद में हाजी यहां पर दौड़ लगाते हैं। इसके बाद जम जम का पानी पीते हैं। इसके बाद हाजी अराफात पर्वत के मैदानों में जाते हैं यहां पर हाजी रमी यानी शैतान को पत्थर मारते हैं। दरअसल, जब हजरत इब्राहीम अपने बेटे इस्माईल को कुर्बानी के लिए जा रहे थे तो रास्ते में शैतान ने उन्हें रोकने की कोशिश की थी। तब उन्हेंने शैतान को पत्थर उठाकर मारा था। इन्ही की याद में उसी स्थान पर बनाए गए पिलर (सांकेतिक शेतान) को पत्थर मारा जाता हैं। उसके बाद सभी पुरुष हाजी अपने सिर के बाल मुंडवाते हैं और पशु की बलि की रस्म अदा करते हैं। वहीं, जो लोग हज पर नहीं जा पाते हैं। वे मुसलमान ईद उल-अजहा का त्योहार 10,11 औज 12 जिहिज्जा को तीन दिवसीय वैश्विक उत्सव मनाते हैं। इस दौरान मुसलमान दस जिल हिज्जा को ईद की नमाज के बाद जानरों की कुर्बानी देते हैं।

मुसलमान क्यों करते हैं कुर्बानी ये सच्चाई जानकर आप भी हो जाएंगे हैरान

गौरतलब है कि कुर्बानी के जानवरों पर अलग अलग हिस्से हैं। जहां बड़े जानवरों पर सात हिस्से होते हैं तो वहीं बकरे जैसे छोटे जानवरों पर महज एक हिस्सा होता है। मतलब साफ है कि अगर कोई शख्स भैंस या ऊंट की कुर्बानी कराता है तो उसमें सात लोगों को शामिल किया जा सकता है। वहीं, एक बकरे की कुर्बानी सिर्फ एक शख्स के नाम पर दी जाती है। कुर्बानी के गोश्त के तीन हिस्से करने की शरीयत में हुक्म दिया है। एक हिस्सा गरीबों में बांटने का हुक्म है। दूसरा हिस्सा अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच बांटने का हुक्म है। वहीं, तीसरा हिस्सा अपने घर में इस्तेमाल करने के लिए कहा गया है। गौरतलब है कि छाटा जानवर जैसे बकरा और भेड़ कम से कम एक साल का होना जरूरी है। वहीं, बड़े जानवर जैसे भैंस या ऊंट की उम्र दो साल होनी चाहिए। इसके साथ ही बीमार, अपाहिज और छोटे-छोटे बच्चे रखने वाले जानवरों की कुर्बानी सही नहीं है। इसके अलावा उलेमा ऐसे जानवरों की कुर्बानी से भी मना किया है, जिसकी कुर्बानी की इजाजत देश का कानून नहीं देता है। यानी पकिसी देश में कानून प्रतिबंधित पशुओं की कुर्बानी भी नहीं देनी चाहिए।

 


दरअसल, हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम इस्लाम धर्म के एक लाख 24 हजार पैगंबरों में से एक हैं। इस्लाम धर्म में उनको बड़ी इज्जत की निगाह से देखा जाता है। हजरत अब्राहीम का लकब ख़ुलीलुल्लाह यानी अल्लाह का दोस्त है। कुरआन शरीफ की चौदहवीं सूरत “सूरह इब्राहीम” उन्हीं ही के नाम पर है। कुरआन मजीद में अल्लाह तआला ने कई जगहों पर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की खूबियां और तारीफ बयान की है। कुरआन करीम में इन्हें “मुस्लिम” भी कहा गया है। कुरआन करीम में ऐसे बहुत सारे पैगंबरों का जिक्र है, जो हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नस्ल से हैं। हजरत इब्राहीम की नस्ल से हजरत मूसा अलैहिस्सलाम (UPBH), हजरत ईसा अलैहिस्सलाम (UPBH) और हजरत मोहम्मद (स) प्रमुख पैगंबर हुए हैं। यही वजह है कि दुनिया के तीन बड़े धर्म यहूदियत, ईसाइयत और इस्लाम के मानने वाले उन्हें अपना पैगम्बर मानते हैं। इन तीनों धर्मों को भी इब्राहीमी धर्म कहा जाता है। यही वजह है कि ये तीनों धर्म मूल रूप से एकेश्वरवाद में विश्वास रखते हैं।


हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम तक़रीबन चार हज़ार साल पहले इराक़ (बेबीलोन) में पैदा हुए थे। लेकिन, एकेश्वरवादी होने की वजह से उन्हें वहां के राजा ने जलाने को कोशिश की, लेकिन जब आग में भी हजरत इब्राहीम नहीं जले तो उन्हें देश से निकाल दिया गया। इस घटना के बाद हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम इराक़ छोड़ कर सीरिया चले गए। इसके बाद फिर वहां से फ़िलस्तीन चले गए और हमेशा के लिए वहीं बस गए। इसी दौरान हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम अपनी बीवी हज़रत सारा के साथ मिस्र गए। वहां के बादशाह ने हज़रत हाजरा को हज़रत इब्राहीम की बीवी हज़रत सारा की ख़िदमत के लिए पेश किया। उस वक़्त तक हज़रत सारा और इब्राहीम के पास कोई औलाद नहीं हुई थी। मिस्र से हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम फिर फ़िलस्तीन वापस लौट आये। हज़रत सारा ने ख़ुद हज़रत हाजरा का निकाह हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के साथ करवा दिया। बुढ़ापे में लग भग 80 की उम्र में हज़रत हाजरा से हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम पैदा हुए। इसके कुछ अर्से के बाद हज़रत सारा से भी हज़रत इस्हाक़ अलैहिस्सलाम पैदा हुए।

अल्लाह के आदेश पर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपनी दूसरी पत्नी हज़रत हाजरा और बेटे हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम को मक्का के चटियल मैदान में छोड़कर चले गए। इसका तजकिरा कुरआन शरीफ में ***** तरह है “ऐ हमारे परवरदिगार! मैंने अपनी कुछ औलाद को आपके ईज्जत वाले घर के पास एक ऐसी वादी में ला बसाया है, जिसमें कोई खेती नहीं होती। हमारे परवरदिगार (ये मैंने इसलिए किया) ताकि ये नमाज़ क़ायम करें। लिहाज़ा, लोगों के दिलों में इनके लिए कशिश पैदा कर दीजिए और इनको फलों का रिज़्क अता फ़रमाइये, ताकि वो शुक्रगुज़ार बनें।” (सूरह इब्राहीम: 37) हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की दुआ ऐसी कुबूल हुई कि दुनिया भर के मुसलमानों के दिल मक्का मुकर्रमा की तरफ खिंचे चले जाते हैं। यही वजह है कि हर मुसलमान की ये ख़्वाहिश होती है कि वो कम से कम एक मर्तबा मक्का स्थित अल्लाह तआला के घर काबा की ज़रूर ज़ियारत करें। मक्का शहर में फलों की इफ़रात का ये आलम है कि दुनियाभर के सभी फल बड़ी तादाद में वहां मिलते हैं।

तप्ती रेगिस्तान में मां-बेटे के पास खाने पीने के लिए कुछ न रहा तो पानी के लिए हजरत इब्राहीम की बीवी हज़रत हाजरा बेचैन होकर क़रीब की सफा और मरवा नामक पहाड़ियों पर दौड़ीं। इसी बीच देखा कि बच्चे के पांव रगड़ने से रेगिस्तान में पानी का चश्मा ज़मज़म फूट पड़ा है। इसी का पानी पीकर दोनों मां-बेटे वहीं रहने लगे। कुछ वक्त के बाद एक क़बीला बनू जुरहुम का उधर से गुज़रा। रेगिस्तान में पानी का चश्मा देख कर उन्होंने हज़रत हाजरा से वहां पर रुकने की इजाज़त चाही तो हज़रत हाजरा ने इन लोगों को वहां रुकने की इजाज़त दे दी। इस तरह मक्का शहर बसना शुरू हुआ। इसी बीच हज़रत इब्राहीम को ख़्वाब में देखा कि वो अपने इकलौते बेटे (हज़रत इस्माईल) को ज़बह कर रहे हैं। इसके बाद अल्लाह के इस आदेश की तामील के लिए फौरन फ़िलस्तीन से मक्का मुकर्रमा पहुंच गए। इस घटना को कुरआन शरीफ में इस तरह बयान फरमाया गया है। “फिर जब वो लड़का इब्राहीम के साथ चलने फिरने के क़ाबिल हो गया तो उन्होंने कहा बेटे, मैं ख़्वाब में देखता हूँ कि तुम्हारी बलि दे रहा हूं। अब सोच कर बताओ तुम्हारी क्या राए है? जब बाप ने बेटे को बताया कि अल्लाह तआला ने मुझे तुम्हारी बलि करने का आदेश दिया है तो पिता के आज्ञाकारी बेटे इस्माईल अलैहिस्सलाम ने जवाब दिया अब्बा जान! जो कुछ आपको आदेश दिया जा रहा है, उसे कर डालिए। इंशाअल्लाह (अगर ईश्वर ने चाहा) तो आप मुझे सब्र करने वालों में पाएंगे।” (सूरह अस्साफ़फ़ात: 102)

इसके बाद अल्लाह तआला को प्रसन्न करने के लिए हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपने दिल के टुकड़े को मुंह के बल ज़मीन पर लिटा दिया, छुरी तेज़ की, आंखों पर पट्टी बांधी और उस वक़्त तक पूरी ताक़त से छुरी अपने बेटे के गले पर चलाते रहे, जब तक अल्लाह तआला की तरफ से ये आवाज न आ गई। “ऐ इब्राहीम, तूने ख़्वाब सच कर दिखाया। हम नेक लोगों को ऐसा ही बदला देते हैं। (सूरह अस्साफ्फ़ात 105) यानी हज़रत इस्माईल की जगह जन्नत से एक दुंबा भेज दिया गया, जिसकी हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने बेटे की जगह कर्बानी दी। इस वाकिये के बाद से अल्लाह तआला की खुशी के लिए जानवरों की कुर्बानी करना ख़ास इबादत में शुमार हो गया। हजरत इब्राहीम (अ) की इसी दरियादिली की याद में पैगम्बर मोहम्मदके मानने वाले हर साल कुर्बानी देते हैं।

इस बड़ी ईश्वरीय परीक्षा में सफल होने के बाद अल्लाह तआला ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को आदेश दिया कि दुनिया में मेरी इबादत के लिए एक घर बनाओ। इसके बाद बाप-बेटे ने मिल कर बैतुल्लाह शरीफ (ख़ाना काबा) की तामीर की। इस वाकिये को कुरआन शरीफ में ***** तरह बयान किया गया है। “और उस वक़्त के बारे में सोचों जब इब्राहीम काबा की नीव रख रहे थे और इस्माईल भी (उनके साथ शरीक थे और दोनों ये कहते जाते थे कि) ऐ हमारे परवरदिगार, हम से ये ख़िदमत कुबूल फ़रमा ले।” (सूरह अलबक़रह 127)

काबे के निर्माण के बाद अल्लाह तआला ने हजरत इब्राहीम को आदेश दिया कि लोगों में हज का एलान कर दो। इसके बाद हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने हज का एेलान किया। बताया जाता है कि अल्लाह हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का एेलान दुनियाभर के सभी लोगों के कानों में गूंज उठी थी। इसके बारे में कुरआन शरीफ में इस तरह फरमाया गया है। “और लोगों में हज का एलान करो कि वो तुम्हारे पास पैदल आएं और दूर दराज़ के रास्तों से सफर करने वाली ऊँटनियों पर सवार होकर आएं जो (लम्बे सफर से) दुबली हो गई हों।” (सूरह अलहज्ज: 27) यही वजह है कि दुनिया के कोने-कोने से लाखों आज़मीन-ए-हज हज का तराना यानी लब्बैक पढ़ते हुए मक्का पहुंचकर पैगंबर मोहम्मद (स) बताए हुए तरीके़ पर हज की आदएगी करके अपना ताल्लुक हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम और हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की अज़ीम कुर्बानियों के साथ जोड़ते हैं। यानी हज के दौरान हर उस काम को दोहराया जाता है, जो जहरत इब्राहीम के परिवार ने किया था।

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