लठमार होली, मथुरा-वृंदावन
उत्तर प्रदेश में बसी है श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा। यहां की होली दुनिया भर में मशहूर है। यहां लठमार होली मनाए जाने की परम्परा है। होली में मथुरा के द्वारकाधीश मंदिर और वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में होली का पर्व देखने लायक होता है। लठमार होली की परंपरा के मुताबिक महिलाएं लठ यानी डंडों से लड़कों को खेल-खेल में मारती हैं और उन्हें रंग लगाती हैं।
यह है लठमार होली की दिलचस्प कहानी
दरअसल लठमार होली मनाने की परंपरा यहां आज या कल की नहीं बल्कि सदियों पुरानी है। यहां लठमार होली महिला सशक्तिकरण के प्रतीक के रूप में मनाई जाती है। इस होली का महत्व श्रीकृष्ण से जुड़ा है। दरअसल माना जाता है कि श्रीकृष्ण महिलाओं की रक्षा के लिए हमेशा उनकी मदद करते थे। लठमार होली के जरिए महिलाएं लाठी डंडों से पुरुषों को मारती हैं। मजे और खेल में निभाई जाने वाली यह परम्परा वास्तव में महिलाओं के आत्मबल का प्रदर्शन है।
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बरसाना की लड्डू और छड़ीमार होली
बरसाना की होली भी मथुरा की लट्ठमार होली की तरह ही खेली जाती है। बरसाने की होली में महिलाएं प्रतीकात्मक तौर पर पुरुषों को लठ या छड़ी से मारती हैं। वहीं पुरुष ढाल से अपनी रक्षा करते नजर आते हैं। इसके अलावा यहां होली से कुछ दिन पहले लड्डू होली मनाई जाती है। इसमें पंडित भगवान कृष्ण को लड्डू का भोग लगाते हैं और फिर उन्हीं लड्डूओं को भक्तों की ओर फेंकते हैं। इसके बाद अबीर गुलाल और फूलों की होली खेले जाने की परम्परा है।
हंपी में दो दिन की होली
कर्नाटक में दो दिन तक होली का पर्व मनाया जाता है। इस होली को मनाए जाने का अंदाज भी बड़ा निराला और अनोखा है। हंपी में मनाई जाने वाली इस होली में दूर-दराज से लोग यहां आते हैं और नाचते गाते हुए एक-दूसरे का रंग लगाकर होली मनाते हैं। हंपी की ऐतिहासिक गलियों में ढोल नगाड़ों की थाप के साथ जुलूस निकाले जाते हैं। कई घंटों तक रंग खेलने के बाद लोग तुंगभद्रा नदी और उसकी सहायक नहरों में स्नान करने जाते हैं।
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मंजुल कुली और उक्कुली, केरल
केरल की होली भी अपने आप में महत्वपूर्ण मानी जाती है। केरल में रंगों का यह पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। यहां होली को मंजुल कुली या उक्कुली के नाम से पुकारा जाता है।
डोल जात्रा, असम
असम में भी होली को अलग नाम और खास तरीके से मनाया जाता है। यहां होली को डोल जात्रा कहा जाता है। असम में भी होली का पर्व दो दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन लोग मिट्टी की बनी झोपड़ी को जलाकर होलिका दहन की परम्परा को निभाते हैं। वहीं दूसरे दिन रंग और पानी से भीग-भीग कर होली का उत्सव मनाया जाता है।
जयपुर में गुलाल गोटों की होली
राजस्थान के जयपुर में गुलाल गोटों से खेली जाने वाली होली काफी मशहूर है। गुलाल गोटों से खेली जाने वाली होली की परम्परा आज से नहीं बल्कि राजा-महाराजाओं के समय से चली आ रही है। वहीं गुलाल गोटों से होली खेलने के लिए देश से ही नहीं बल्कि विदेश से लोग यहां पहुंचते हैं।
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गुलाल गोटे क्या हैं
दरअसल गुलाल गोटे लाख से बनाए जाते हैं। लाख को गर्म कर उसमें रंगों का यूज कर अलग-अलग रंगों की लाख तैयार कर, मटके की जैसी शेप देकर उन्हें फुग्गी से फुलाया जाता है और ठंडे पानी में डाल दिया जाता है। ठंडा होने के बाद उन्हें हल्के हाथों से कपड़े से पोछकर सुखा लिया जाता है। फिर इनके अन्दर सूखी गुलाल भर कर इन्हें ऊपर से कवर कर दिया जाता है। वहीं कच्चे-पक्के गीले रंग भी इनमें भरकर इन्हें कवर किया जाता है। फिर खरीदार इन्हें ले जाते हैं और होली के दिन इन्हें एक-दूसरे पर फेंकते हैं। जैसे ही इन्हें किसी पर फेंका जाता है ये उस व्यक्ति पर फूट जाते हैं और उसे रंग से भिगो देते हैं या गुलाल से रंग देते हैं। कहा जाता है कि राजा-महाराजा महारानियों के साथ इन्हीं गुलाल गोटों से होली खेला करते थे। देखने में यह काफी छोटे और खूबसूरत होते हैं, वहीं वजन में एकदम हल्के, जिससे ये किसी को चोट नहीं पहुंचाते।
यहां होते हैं ये आयोजन भी
जयपुर में राजघरानों से होली उत्सव की धूम देखी जाती रही है। होली पर्व से ठीक एक दिन पहले यानी होली दहन वाले दिन यहां स्थित चौगान स्टेडियम में हर साल होली उत्सव का आयोजन किया जाता है। इसमें विदेश से आने वाले लोग भी हिस्सा लेते हैं। हाथियों और घोड़ों पर बैठकर पोलो खेला जाता है और खेल-खेल में गुलाल और रंगों से होली का पर्व मनाया जाता है। लोक गीतों और नृत्यों से सजी झांकी का आयोजन किया जाता है। इस झांकी में सुंदर तरीके से सजाए गए हाथी, घोड़ों और ऊंटों का देखना ही आनंद से भर देता है। इस उत्सव को देखने दूर-दूर से लोग यहां पहुंचते हैं।