– क्रॉनिक रिनल डिजीज या क्रॉनिक किडनी डिजीज के कारण क्रिएटिनिन क्लियरेंस रेट 15 फीसदी या उससे भी कम हो जाए तो डायलिसिस करना पड़ता है।
– किडनी की समस्या के कारण शरीर में पानी इकट्ठा होने लगे यानी ‘फ्लूइड ओवरलोड’ की समस्या हो जाए। पहले दवा देकर देखा जाता है, फायदा न मिलने पर डायलिसिस करना पड़ता है।
– अगर शरीर में पोटेशियम की मात्रा बढ़ जाए और हृदय की धड़कनें अनियमित हो जाएं तो अलग-अलग तरह की दवाएं दी जाती हैं। दवाओं का असर न दिखे तो डायलिसिस की सलाह दी जाती है।
– ‘रेजिस्टेंस मेटाबॉलिक एसिडोसिस’ की वजह से एक्यूट रिनल फेल्योर का खतरा उत्पन्न हो जाता है। इस रोग से शरीर में एसिड की मात्रा अचानक बढ़ जाती है। शुरू में सोडाबाइकार्ब जैसी दवाओं से नियंत्रण की कोशिश की जाती है। फायदा न होने पर डायलिसिस करना पड़ता है।इनके अलावा यूरिमिक पेरिकार्डाइटिस, यूरिमिक एनकेफेलोपैथी और यूरिमिक गैस्ट्रोपैथी जैसे रोगों की वजह से भी डायलिसिस की जरूरत पड़ सकती है।
समस्या के प्रकार और गंभीरता के अनुसार डायलिसिस दो प्रकार का होता है-
1. हीमोडायलिसिस
2. पेरिटोनियल डायलिसिस। हीमोडायलिसिस
यह एक प्रक्रिया है। जिसे कई चरणों में संपन्न करना पड़ता है। इस प्रक्रिया में शरीर से विशेष प्रकार की मशीन द्वारा एक बार में 250 से 300 मिलिलीटर रक्त को बाहर निकालकर शुद्ध किया जाता है और वापस शरीर में डाला जाता है। इस शुद्धीकरण के लिए ‘डायलाइजर’ नामक चलनी का प्रयोग किया जाता है। यह प्रक्रिया केवल अस्पताल में ही की जाती है।
इस डायलिसिस में रोगी की नाभि के नीचे ऑपरेशन के माध्यम से एक नलिका लगाई जाती है। इस नलिका के जरिए एक प्रकार का तरल (पी. डी. फ्लूइड) पेट में प्रवेश कराया जाता है। पेट के अंदर की झिल्ली डायलाइजर का काम करती है जो पी. डी. फ्लूइड के अच्छे पदार्थों को शरीर में प्रवेश कराती है और रक्त में मौजूद विषैले पदार्थों को बाहर निकालती है। यह तरल पेट में 5-6 घंटे तक रखना पड़ता है। इसके बाद नलिका के माध्यम से पी. डी. फ्लूइड को बाहर निकाला जाता है। यह आजकल प्रचलन में काफी ज्यादा है। यह उपचार उन लोगों का होता है जो या तो बेहद कम उम्र या ज्यादा आयु के होते हैं, विज्ञान की भाषा में इसे ‘एक्सट्रीम ऑफ एजेस’ कहते हैं। जिन लोगों को हृदय संबंधी समस्या हो या ऐसे लोग जो हीमोडायलिसिस प्रक्रिया को सहन न कर पाए उनके लिए उपचार का यह तरीका काफी उपयोगी होता है।