पंडित केपी शर्मा का कहना है कि पुराणों के अनुसार व्यक्ति जन्म के साथ ही उस पर तीन प्रकार के ऋण (पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण) चढ़ जाते हैं। इनमें सर्वोपरि ऋण पितृ ऋण माना जाता है।
ऐसे में इससे मुक्त होने के लिए व्यक्ति को अपने घर के मृत बुजुर्गों का श्राद्ध करना अवश्य माना गया है। ऐसे करने से घर के मृत बुजुर्गों को पुत नामक नरक के कष्टों से मुक्ति मिलती है।
ऐसे समझें श्राद्ध…
पंडित शर्मा के अनुसार दरअसल पितरों की स्मृति में श्रद्धापूर्वक किया गया दान आदि कर्म ही श्राद्ध माना गया है। वहीं यह भी माना जाता है कि अपने पूर्वजों की स्मृति में भोजन दान के अलावा पौधा लगाना और उसकी देखभाल करते हुए उसे वृक्ष के रूप में ले जाना, किसी असहाय की मदद करना, किसी रोगी की जरूर के अनुसार आर्थिक या शारीरिक मदद करना, पुस्तक, वस्त्र आदि का दान करना भी श्राद्ध के तहत ही आते हैं।
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प्रत्येक माह की अमावस्या पितरों की दोपहर मानी जाती है। ऐसे में इस दिन दोपहर के समय ही भोजन करने का नियम होने और हर अमावस्या को पितरों की तिथि मानकर अन्न दान का नियम है।
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किसी भी मांगलिक कार्य के अवसर पर या ग्रहण काल, पूर्वजों की मृत्यु तिथि, तीर्थ यात्रा आदि में श्राद्ध करना कल्याण कारक माना जाता है। कन्या राशि में सूर्य के रहने के दौरान श्राद्ध या कन्या-गत या कनागत करने का नियम है।
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श्राद्ध का किसे है अधिकार?
पं. शर्मा के अनुसार श्राद्ध का पहला अधिकार सामान्य रूप से मृतक के बड़े पुत्र को होता है, लेकिन उसके न होना या यदि वह श्राद्ध कर्म न करे तो छोटा पुत्र श्राद्ध का अधिकारी होता है।
वहीं जब किसी परिवार में सभी पुत्र अलग-अलग रहते हों तो सभी को पितरों का श्राद्ध करना चाहिए। पुत्र न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध करने का अधिकारी होता है। वहीं यदि किसी का पुत्र है ही नहीं तो भाई को श्राद्ध करने का अधिकार होता है।
महिलाओं को भी है अधिकार…
वहीं कुछ ग्रंथों में श्राद्ध करने का अधिकार महिलाओं को भी दिया गया है। जैसे यदि पुत्र ना हो तो भाई से पहले मृतक की पत्नी का श्राद्ध करने का अधिकार माना गया है।
इसी तरह विवाह ना होने या पत्नी और संतान ना होने की स्थिति में मृतक की माता और बहन को भी श्राद्ध का अधिकार दिया गया है। यदि पुत्र श्राद्ध कर्म ना कर सकें तो पुत्र वधु को भी श्राद्ध करने का अधिकार है।
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इनको भी है श्राद्ध का अधिकार
पुत्र के अलावा पौत्र और प्रपौत्र को भी अपने दादा-दादी, या परदादा और परदादी का श्राद्ध करने का अधिकार है, लेकिन ये ना हों तो भाई-भतीजे व उनके पुत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।
यदि ऐसा संबंधी ना हो तब पुत्री का पुत्र यानी दौहित्र भी श्राद्ध कर अपने पितरों का उद्धार करवा सकता है। इसी तरह बहन के पुत्र यानि भांजे को भी श्राद्ध का अधिकार दिया जा सकता है।
श्राद्ध के नियम…
पंडित शर्मा के अनुसार कोई भी किसी का भी श्राद्ध नहीं कर सकता, जैसे धन के मामले में खुद का लिया कर्ज स्वयं चुकाना होता है उसी प्रकार संतान को अपने पूर्वजों से मिली संतति का ऋण भी खुद ही चुकाना होता है।
श्राद्ध का वक्त…
जानकारों के अनुसार हमेशा दोपहर से पहले ही श्राद्ध को कर लेना चाहिए। शास्त्रों के मुताबिक संगव काल में श्राद्ध होता है। इसके तहत यदि पूरे दिन के पांच बराबर हिस्से कर लिए जाएं तो जो दूसरा हिस्सा आता है वहीं संगव काल कहलाता है। यानि सुबह के नाश्ते के समय से दोपहर के भोजन के समय तक सुविधानुसार श्राद्ध किया जा सकता है।