वास्तव में मानसिक पूजा का शास्त्रों में श्रेष्ठतम पूजा के रूप में वर्णित है । इस शिव मानस पूजा को सुंदर-समृद्ध कल्पना से करने पर शिव अत्यंत प्रसन्न होते हैं और मानसिक रूप से चढ़ाई हर सामग्री को प्रत्यक्ष मानकर आशीर्वाद देते हैं ।
शिव मानस पूजा स्तुति
1- रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं ।
नाना रत्न विभूषितम् मृग मदामोदांकितम् चंदनम ॥
जाती चम्पक बिल्वपत्र रचितं पुष्पं च धूपं तथा ।
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितम् गृह्यताम् ॥
अर्थात- मैं अपने मन में ऐसी भावना करता हूँ कि हे पशुपति देव संपूर्ण रत्नों से निर्मित इस सिंहासन पर आप विराजमान होइए । हिमालय के शीतल जल से मैं आपको स्नान करवा रहा हूं । स्नान के उपरांत रत्नजड़ित दिव्य वस्त्र आपको अर्पित हैं । केसर-कस्तूरी में बनाया गया चंदन का तिलक आपके अंगों पर लगा रहा हूं । जूही, चंपा, बिल्वपत्र आदि की पुष्पांजलि आपको समर्पित हैं । सभी प्रकार की सुगंधित धूप और दीपक मानसिक प्रकार से आपको दर्शित करवा रहा हूं, आप ग्रहण कीजिए ।
2- सौवर्णे नवरत्न खंडरचिते पात्र धृतं पायसं ।
भक्ष्मं पंचविधं पयोदधि युतं रम्भाफलं पानकम् ॥
शाका नाम युतं जलं रुचिकरं कर्पूर खंडौज्ज्वलं ।
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ॥
अर्थात- मैंने नवीन स्वर्णपात्र, जिसमें विविध प्रकार के रत्न जड़ित हैं, में खीर, दूध और दही सहित पांच प्रकार के स्वाद वाले व्यंजनों के संग कदलीफल, शर्बत, शाक, कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मृदु जल एवं ताम्बूल आपको मानसिक भावों द्वारा बनाकर प्रस्तुत किया हैं । हे कल्याण करने वाले! मेरी इस भावना को स्वीकार करें ।
3- छत्रं चामर योर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निमलं ।
वीणा भेरि मृदंग काहलकला गीतं च नृत्यं तथा ॥
साष्टांग प्रणतिः स्तुति-र्बहुविधा ह्येतत्समस्तं ममा ।
संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ॥
अर्थात- हे भगवन, आपके ऊपर छत्र लगाकर चंवर और पंखा झल रहा हूं । निर्मल दर्पण, जिसमें आपका स्वरूप सुंदरतम व भव्य दिखाई दे रहा है, भी प्रस्तुत है । वीणा, भेरी, मृदंग, दुन्दुभि आदि की मधुर ध्वनियां आपको प्रसन्नता के लिए की जा रही हैं । स्तुति का गायन, आपके प्रिय नृत्य को करके मैं आपको साष्टांग प्रणाम करते हुए संकल्प रूप से आपको समर्पित कर रहा हूं । प्रभो! मेरी यह नाना विधि स्तुति की पूजा को कृपया ग्रहण करें ।
5- आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं ।
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः ॥
संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो ।
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥
अर्थात- हे शंकरजी, मेरी आत्मा आप हैं । मेरी बुद्धि आपकी शक्ति पार्वतीजी हैं । मेरे प्राण आपके गण हैं । मेरा यह पंच भौतिक शरीर आपका मंदिर हैं । संपूर्ण विषय भोग की रचना आपकी पूजा ही हैं । मैं जो सोता हूं, वह आपकी ध्यान समाधि हैं । मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा हैं । मेरी वाणी से निकला प्रत्येक उच्चारण आपके स्तोत्र व मंत्र हैं । इस प्रकार मैं आपका भक्त जिन-जिन कर्मों को करता हूं, वह आपकी आराधना ही हैं ।
6- कर चरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व जय जय करणाब्धे श्री महादेव शम्भो ॥
अर्थात- हे परमेश्वर! मैंने हाथ, पैर, वाणी, शरीर, कर्म, कर्ण, नेत्र अथवा मन से अभी तक जो भी अपराध किए हैं । वे विहित हों अथवा अविहित, उन सब पर आपकी क्षमापूर्ण दृष्टि प्रदान कीजिए । हे करुणा के सागर भोले भंडारी श्री महादेवजी, आपकी जय हो । जय हो ।