वास्तव में, एक व्यक्ति जो दूसरे से क्रोध, घृणा, बदले की भावना रखता है, वह स्वयं एक तनाव में गलता रहता है । यह उसके शारीरिक, मानसिक संतुलन को बिगाड़ते हैं । उसका चिंतन दूषित होता है और जीवन मे अशांति बनी रहती है । किसी ने कहा है कि पुराने घावों को खरोंचना और उनका हिसाब रखना कभी भी उनको भरने नहीं देगा । क्षमाशीलता के अभाव में लोग शिकवे – शिकायतों को जिंदगी भर ढोते हैं । यदि कोई उनसे ईमानदारी के साथ क्षमायाचना कर ले या फिर वे खुद ही ईमानदारी से क्षमा मांग लें, तो व्यर्थ के मानसिक तनाव से बच सकते हैं ।
अगर हम पारिवारिक स्तर पर भी देखें तो यह द्वेष, बदले की भावना भाई से भाई को अलग कर देती है और कई पीढियां घृणा की आग में जलती रहती हैं । अगर भाई अपना अहं त्याग दें, साथ बैठें, क्षमा की भावना रख के बात करें तो हमेशा पारिवारिक शांति और एकता बनी रहेगी । ध्यान रखें की माफ़ी मांगने का मतलब ये नहीं है कि आप गलत हैं और दूसरा व्यक्ति सही है । इसका मतलब ये है कि आप अपने अहम् से ज्यादा अपने सम्बंधों की कदर करते हैं ।
क्षमा करने और क्षमा मांगने से जहां स्वयं को शांति का अनुभव होता है वहीं समाज में समरसता, प्रेम, सोहार्द का वातावरण बनता है, उदाहरण स्वरूप -साम्प्रदायिक दंगों में द्वेष, घृणा का वातावरण बनता है, और शांन्ति का प्रयास न होने पर लंबे समय तक वैमनस्य की भावना बनी रहती है, अगर ऐसे में इन सम्प्रदायों के लोग साथ बैठ जाएं बाते करें, क्षमा की भावना रखें तो समाज मे शांति बनी रहेगी । आज विश्व की बडी से बड़ी समस्याओं को दूर किया जा सकता है अगर हम गलतियों को माफ करें, मित्रता का भाव रखें और पुराने द्वेष को भुलाकर आगे बढ़ें ।
विश्व के सारे धर्मों, सभी विचारकों के द्वारा क्षमा को बहुत उच्च स्थान दिया गया है ।
1- भागवत पुराण में भी कहा गया है कि – “सच्ची वही साधुता है, कि स्वयं समर्थ होने पर भी क्षमाभाव रखें..”
2- वहीं पवित्र कुरान में लिखा है कि – “जो क्षमा करता है, और बीती बातों को भूल जाता है, उसे ईश्वर की ओर से पुरस्कार मिलता है….”
3- प्रभु यीशु मसीह ने अपने को सूली पर चढ़ाने वालों को भी क्षमा कर दिया था,
“तब यीशु ने कहा हे पिता, इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये जानते नहीं कि क्या कर रहें हैं… लूका २३:३४”
ऐसा कोई धर्मग्रंथ नहीं जिसमें क्षमा की महत्ता न बताई गई हो ।
एक महत्वपूर्ण बात ध्यान योग्य है कि क्षमा न केवल दूसरों को करना होता है, अपितु कई बार हमको स्वयं को भी क्षमा करना चाहिए । जाने-अनजाने में हमसे ऐसी गलती हो जाती है जिसका भार हम आगामी जीवन मे ढोते रहते हैं । मैं कई युवाओं से मिलता हूँ जो स्कूल -कॉलेज में पढ़ाई न करने और मनपसंद नौकरी न पाने को लेकर खुद को कोसते रहते हैं । मैं उनसे सदैव कहता हूं कि कोसने से कुछ नही होगा, आवश्यकता है कि अपनी गलती को पहचानो, उससे सीखो और स्वयं को क्षमा कर के आगे बढ़ो । अगर स्वयं को कोसते रहोगे तो अपनी शक्तियों का क्षय करोगे और कहीं न कहीं अपने सही सामर्थ्य को अभिव्यक्त नहीं कर पाओगे ।
ये सब बातें कहना आसान है, परंतु सही रूप से क्षमाशील होने के लिए बहुत बड़ा हृदय चाहिए । “क्षमा वीरस्य भूषणम” अर्थात क्षमा वीरों का आभूषण है । क्षमा मांगने और क्षमा करने के लिए अपने अहं को पीछे रखना होता है एवं हृदय में क्षमा का भाव रखना होता है । किसी के प्रति दुर्भावना को मन से निकालना होता है । आज लोग केवल दिखाने के लिए “उत्तम क्षमा” या “मिच्छामि दुक्कदम” कह देते हैं । कई लोग तो फेसबुक, व्हाट्सएप्प पर ही ये फारवर्ड कर इति श्री कर लेते हैं । ऐसी क्षमा के कोई मायने नहीं हैं ।
क्षमा का महत्व तभी है जब इसके पीछे पुण्य – भावना हो । छोटे – बड़े का भेद भूला, सरलता, विनम्रता, अहंकार को पीछे रख कर, बंधुत्व भावना से मांगी या दी गयी क्षमा ही सही है । आज आवश्यकता है कि सम्पूर्ण विश्व क्षमा के महत्व को समझे हमारे आचरण में यह दिखे और समाज को हम सुख, शान्ति के मार्ग पर, एक सुनहरे, आनंद से परिपूर्ण भविष्य की और ले चलें ।