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क्या है गल-चूल?
आपको बता दें कि, जलते अंगारों पर चलने वाली प्रथा को चूल कहा जाता है और 50 फीट ऊंचाई पर बांस की लकड़ी पर घूमने वाली प्रथा को गल कहते है। सगवाल गांव में ये अनुठी परंपरा 200 सालों से मनाई जा रही है। हर साल यहां गल और चूल का खंडेराव मेला आयोजित होता आ रहा है। इस बार कोविड-19 के चलते प्रशासन द्वारा सिर्फ आस्था का पर्व मनाने की अनुमति दी गई। मेला निरस्त होने पर यहां सिर्फ गल और चूल प्रथा ही मनाई गई।
किसी चमत्कार से कम नहीं
गोद में बच्चे को लेकर जब मां अंगारों पर चली तो देखकर हर कोई हैरान रह गया। लेकिन, बड़ी हैरानी इस बात की है कि, 12 फीट लंबे जलते अंगारों पर चलने के बाद भी मन्नत करके परंपरा निभाने वाली महिलाओं के पैरों में छाले पड़ना तो बहुत दूर की बात निशान तक नहीं पड़े। 30 किमी तक पैदल चलकर आने वाले पुरुषों को 50 फीट ऊंचे गल पर चढ़कर हवा मे बिना सहारे घूमना भी किसी को भी आश्चर्यचकित कर देने के लिये काफी है।
दो घंटे मनाई गई गल-चूल की परंपरा
इस बार दोपहर 12 बजे से गल ओर चूल की ये अनुठी परंपरा आयोजित की गई। ग्राम पंचायत सहायक सचिव मनीष परमार के मुताबिक, इस अनूठी परंपरा का आयोजन दोपहर 2 बजे तक जारी रहा। इस दौरान 100 से अधिक महिला जलते अंगारों पर चलीं, तो वहीं 150 से अधिक पुरुष गल मे शामिल हुए।
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200 सालों से चली आ रही अनूठी परंपरा
गांव के ही रहने वाले सुरेश पाटीदार के मुताबिक, सगवाल मे गल ओर चुल की ये अनुठी परंपरा करीब पिछले 200 सालों से मनाई जाती आ रही है। धार जिले के 50 से अधिक गांव के मन्नतधारी महिला और पुरुष बड़ी सख्या में शामिल होकर वर्षों पुरानी रीति रिवाज के साथ अपनी मन्नत चुल पर चढ़कर और गल में घूमकर पूरी किया करते हैं। खास बात ये है कि, इतने सालों में अब तक इस परंपरा को निभाने के दौरान कोई भी अप्रीय या बड़ी घटना नही हुई। 30 किमी तक पैदल चलकर यहां आने वाले मन्नत धारी अपनी मन्नत पूरी कर अपने निजी वाहन से वापस लौटते है। कई महिला अपने बच्चे को गोद मे उठाकर जलते अंगारों पर चलती है, यह मन्नत पूर्व में ली जाती है।