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चूरू

राजस्थान में यहां आते हैं अमेरिका व यूरोप से दुर्लभ प्रजाति के उल्लू

तालछापर अभयारण्य में सर्दियां बिताने के लिए करीब 350 से भी अधिक प्रजातियों के पक्षी आते हैं। आधा फरवरी महीना बीतने के बाद ये मेहमान पक्षी अपने घरों की ओर रूख करने लगते हैं। रेंजर उमेश बागोतिया ने बताया कि अभयारण्य में कुल आठ प्रजातियों के उल्लू बसेरा करते हैं। जिसमें से चार अमेरिका व यूरोप से आते हैं। जबकि चार प्रजातियों के उल्लू स्थानीय हैं। अब गर्मी की सीजन शुरू होने के बाद चार प्रजातियों के पावणे उल्लू अपने वतन लौट गए हैं। यहां पर अब चार प्रजातियों के हमारे उल्लू शेष रह गए हैं।

चूरूFeb 27, 2024 / 09:17 am

Devendra

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चूरू. धोरों में गर्मी की दस्तक के साथ ही विदेशी पावणे अपने वतन की ओर उड़ान भरने लगे हैं। काले हिरणों की शरणगाह के तौर पर समूचे विश्व में प्रसिद्ध जिले के पश्चिमी छोर पर स्थित तालछापर अभयारण्य में सर्दियां बिताने के लिए करीब 350 से भी अधिक प्रजातियों के पक्षी आते हैं। आधा फरवरी महीना बीतने के बाद ये मेहमान पक्षी अपने घरों की ओर रूख करने लगते हैं। रेंजर उमेश बागोतिया ने बताया कि अभयारण्य में कुल आठ प्रजातियों के उल्लू बसेरा करते हैं। जिसमें से चार अमेरिका व यूरोप से आते हैं। जबकि चार प्रजातियों के उल्लू स्थानीय हैं। अब गर्मी की सीजन शुरू होने के बाद चार प्रजातियों के पावणे उल्लू अपने वतन लौट गए हैं। यहां पर अब चार प्रजातियों के हमारे उल्लू शेष रह गए हैं।

जानें क्यों आते हैं विदेशी उल्लू यहां

वन्यजीव विशेषज्ञों के मुताबिक यूरोप व अमेरिका में सर्दी के मौसम में बड़े पैमाने पर बर्फबारी होने के कारण वहां पर भोजन की कमी हो जाती है। ऐसे में उल्लू भोजन की तलाश में हजारों किमी का सफर तय कर तालछापर व आसपास के इलाकों में आते हैं। यहां पर इनका सबसे पसंदीदा भोजन चूहे व छिपकलियां हैं, जो कि रेगिस्तान में बहुतायत पाये जाते हैं। चूहे रात को भोजन की तलाश में बिलों से बाहर निकलते हैं। यही समय उल्लू के शिकार को होता है। जो कि आसानी से मिल जाता है। उल्लू चूहों को दबोच कर उनका रस निचोड़ कर पीते हैं। बाकी कि अवशेष वे उल्टी कर मुहं से बाहर निकाल देते हैं।
ये अंतर है देशी व विदेशी उल्लू में
प्राणी शास्त्र से जुड़े विशेषज्ञों के मुताबिक बर्फीले इलाकों से तालछापर आने वाले विदेशी उल्लू की कद काठी बड़ी होती है। उनका शरीर भरपूर मांसल होता है। ये ताकतवर होते हैं। रात को शिकार की तलाश में ये कई किमी का फेरा लगाकर ऊंची उड़ान भरते हैं। रात्रि में दूर तक देखने की इनकी क्षमता अधिक होती है। ये सूनें घरों की बजाय पेड़ के खोखले तनें में ही अपना डेरा जमाते हैं। इधर, हमारे देशी प्रजाति के उल्लू आकार में छोटे होते हैं। शरीर भी ज्यादा ताकतवर नहीं होता। जिसके चलते ये आसपास के इलाकों में ही नीची उड़ान भरकर शिकार करते हैं। यहां पाए जाने वाले उल्लू पुराने जर्जर घरों में भी अपना बसेरा बना लेते हैं। उल्लू किसानों के मित्र होते हैं। एक उल्लू एक साल में करीब एक हजार चूहों को अपना निवाला बना लेता है।
धार्मिक मान्यताओं के जरिए मिलता है सरंक्षण

सनातन आस्था में उल्लू का बड़ा महत्व है। इन्हें लक्ष्मी के वाहन का दर्जा प्राप्त होने के कारण लोग इनका शिकार नहीं करते। बल्कि उल्लू के संरक्षण व सुरक्षा को लेकर लोग सजग रहते हैं। पुराने समय से चली आ रही कई तरह की भ्रांतियों के कारण उल्लू का तंत्र-मंत्र विद्या में भी खासा महत्व है। तांत्रिक इनके पंखों के तावीज बनाकर लोगों को कई तरह की बाधाओं से मुक्त करने का दावा करते हैं। निशाचर प्रकृति का होने के कारण उल्लू रात्रि में ही दिखता है। इस वजह से लोग भ्रमित होकर तांत्रिकों के फेर में आ जाते हैं।

अभयारण्य में मौजूद हैं ये आठ प्रजातियां

रेंजर उमेश बागोतिया ने बताया कि शीतकाल प्रवास पर आने वाले चार प्रजातियों के उल्लू में से उत्तरी अमेरिका से आने वाला लॉन्ग इर्यड आउल अति दुलर्भ पक्षी है। इसके अलावा यूरोप से शॉर्ट इर्यड आउल, पेलिड स्कॉप्स आउल व यूरेशियन स्कॉप्य आउल यहां आते हैं। जबकि स्थानीय प्रजातियों में यहां पर लिटिल ब्राउन आउल, बर्न आउल, मॉस्क स्टीक आउल व इंडियन स्कॉप्स आउल पाए जाते हैं।

जानें उल्लू की ये खासियतें

पक्षी विशेषज्ञों के मुताबिक उल्लू ही एक ऐसा पक्षी है, जो एक जगह बैठकर 270 डिग्री तक अपनी गर्दन दाये- बायें और 90 डिग्री तक ऊपर घूमा सकता है। पक्षियों में उल्लू की एक ऐसा प्राणी है जो नीले रंग को पहचान सकता है। उल्लू की कुछ प्रजातियों की आंखें इंसानों की आंखों के जितनी बड़ी होती हैं। इसके बाद भी उनके सिर का आकार मानवीय सिर की तुलना में एक प्रतिशत ही होता है। रात्रि में उल्लू की देखे की क्षमता इंसानों करीब तीन गुना अधिक होती है। इसके अलावा उल्लू हमारी तुलना में 10 गुना अधिक तेजी से अपनी आंखों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। जिससे पेड़ों से नहीं टकराते व शिकार को तेजी से दबोच सकते हैं। उल्लुओं की सुनने की क्षमता बहुत होती है। ये सैकेंड के हजारवें हिस्से की तरंगों को आसानी से सुन सकते हैं। जिसके चलते रात को अपने शिकार की आहट पाते ही उस पर झपट पड़ते हैं।
एक्सपर्ट ऑपिनियन…
उत्तरी अमेरिका व यूरोप के कई इलाकों मेंं सर्दियों में बर्फबारी होने के कारण भोजन की कमी हो जाती है। जिसके कारण तालछापर में वहां की चार प्रजातियों के उल्लू शीतकालीन प्रवास पर आते हैं। जिसमें लॉन्ग इर्यड, शॉर्ट इर्यड,पेलिड स्कॉपस व यूरेशियन स्कॉप्स प्रजाति के उल्लू मुख्य तौर पर छह माह तक अपना डेरा जमाते हैं। उल्लू का पसंदीदा भोजन चूहे व छिपकलियां व गिलहरियां होती हैं। रात्रि में चूहे खेतों में बनें अपने बिलों से भोजन की तलाश में बाहर आते हैं तो उल्लू उन्हें आसानी से दबोच लेते हैं। इसके बाद अपने ताकतवर पंजों में दबाकर उनका रस चूस लेते हैं व बाकी का अपशिष्ट उल्टी के जरिए बाहर निकाल देते हैं। हालांकि उल्लू के भोजन करने के तरीके को लेकर शोध चल रहा है। जिसमें मुख्य तौर पर यह तरीका सामने आया है।
सूरतसिंह पूनिया, वन्यजीव विशेषज्ञ, सादुलपुर

उल्लू ही एक ऐसा पक्षी है जो नीले रंग की पहचान कर सकता है। उल्लू की सुनने की क्षमता अद्भुत होती है। एक सैकेंड के हजारवें हिस्से में ये ध्वनी की तंरगों को सुन सकते हैं। जिसके चलते रात्रि में अपने शिकार की आहट पाते ही ये बिजली की फुर्ती से उस पर झपट्टा मारकर उसे दबोच लेते हैं। उल्लू की रात्रि में देखने की क्षमता इंसानों से तीन गुना अधिक होती है। इसके अलावा इसकी सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि ये एक जगह बैठकर अपनी गर्दन 270 डिग्री दाये- बांये व 90 डिग्री ऊपर की ओर घुमा सकते हैं। उल्लू किसानों के मित्र होते हैं। एक साल में एक उल्लू एक हजार से भी अधिक चूहों को अपना निवाला बना लेता है।
डॉ. केसी सोनी, प्रोफेसर, जीव विज्ञान, लोहिया कॉलेज, चूरू

उत्तरी अमेरिका से आने वाला लॉन्ग इर्यड ऑवल पक्षियों की अति दुर्लभ प्रजातियों की सूची में शामिल है। तालछापर में इसे दो साल पहले देखा गया था। इसके अलावा शॉर्ट इर्यड, पेलिड स्कॉप्स व यूरेशियन स्कॉप्स भी दुर्लभ प्रजातियों की सूची में शामिल है।
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