सफाई का था विशेष महत्व
शिक्षाविद् व इतिहास के जानकार प्रो. कमल कोठारी बताते हैं कि दीपावली प्रकृति और संस्कृति के तालमेल का उत्कृष्ट त्योहार है। करीब आठ दशक पहले दीवाली से पहले सफाई को विशेष प्राथमिकता दी जाती थी। घरों की सफाई में सभी सहयोग करते थे। धोळप, पीली मिट्टी व सफेदी से घरों की पुताई की जाती थी। महिलाएं व युवतियां हिरमच व धोळप से मांडणे मांडती थी। पूजा वाले दिन घरों में लक्ष्मी जी के पगल्ये आंगन में मांडते थे। कच्चे घरों में गोबर व मिट्टी से लिपाई की जाती थी। उन्होंने बताया कि जब वे महज 20 साल के थे तो उनकी 60 वर्षीय दादी बताती थी कि पांच दिवसीय दीपावली पर्व में हर दिन का खास महत्व होता था। देशी उपज पूजा- अर्चना में काम ली जाती थी। जिसमें बेर, काचरे, मतीरे व बाहर से लाए गए गन्ने काम में लिए जाते थे। इसके अलावा बाजार में तिलकणी, चपड़ा व सेंठोली मिठाई के तौर पर बिकती थी।
दीपक की होती थी पूजा-अर्चना
शहर के 70 वर्षीय बुजुर्ग इतिहासकार श्याम सुंदर शर्मा ने बताया कि दीपावली पर दीपकों से घरों की मुंडेर व कंगूरों पर रोशनी की जाती थी। इससे पहले मिट्टी के दीयों की पूजा कर उन्हें भोग लगाया जाता था। इसके अलावा दीवाली पर लक्ष्मी जी की पूजा करते थे। कलम, दवात व बही की भी पूजा की जाती थी। इस मौके पर बही में उस दिन कृषि जिंसों के मोलभाव लिखे जाते थे। बाजारों में महाजन देर रात के बाद अपनी दुकानों में पूजा करते थे। दुकानों के आगे दीपकों से रोशनी कर वृक्षों के पत्तों की मालाओं से सजावट की जाती थी। लोग मंदिरों में की गई विशेष सजावट को देखने जाते थे। अब आधुनिकता की होड़ ने हमारे जीवन में भी बदलाव ला दिया है। दीपावली पर एलईडी लाइटों ने मिट्टी के दीयों की जगह ले ली है। बदलाव का असर आमजन में दिखने लगा है। त्योहार को आधुनिकता का रंग देकर इसे नया रूप दे दिया है। यही वजह है कि हमारी संस्कृति अब खतरे में है।
पारंपरिक भोजन से महकते थे आंगन
शहर के इतिहास के जानकार बुजुर्ग रामगोपाल बहड़ ने बताया कि पुराने जमाने में दीपावली पर ग्वार की सुखी फळियों को तला जाता था। इस दिन घरों में तवे चूल्हे पर नहीं चढते थे। उसकी जगह कड़ाही चूल्हे पर चढती है। मूंग की दाल व चावल के अलावा शगुन के तौर पर गुड़ की लापसी व बड़ी की सब्जी बनती थी। हर वर्ग के लोग सामर्थ्य के हिसाब से नए कपड़े पहनते थे। उस जमाने में प्रेम की पराकाष्ठा परवान पर थी। दिवाली के दूसरे दिन शाम तक रामा- श्यामा का दौर चलता था। सेठ -साहूकारों के यहां काम करने वाले लोगों को त्योहार की बख्शीश दी जाती थी। अब समय के साथ आए बदलाव में हमारे पूर्वजों द्वारा सहेजे गए रोशनी के इस त्योहार का उजास मंद पड़ गया है।