‘काला आम’ का असली नाम अधिकांश लोगों को शायद मालूम ही न हो। ‘काला आम’ का असली व पुराना नाम ‘कत्ले आम’ है। ‘कत्ले आम’ लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ा और धीरे-धीरे यह ‘काला आम चौराहा’ कहा जाने लगा। यहां पहले आम का विशाल बाग था। इन्हीं आम के पेड़ों पर आजादी के मतवालों को फांसी दी जाती थी। कभी-कभी अंग्रेजी फौज क्रांतिकारियों को उल्टा लटकाकर नीचे आग जला देते थे। अब कोई आम का पेड़ तो शेष नहीं है, पर काला आम पर बना शहीद स्मारक आज भी शहीदों की याद ताजा रखता है।
इतिहास के जानकार हरी अंगिरा बताते हैं कि भारत माता के सपूतों को पहले तो बर्बरता से कठोर यातना दी जाती थी। उसके बाद उन्हें फांसी पर लटकाया जाता था। साथ ही कोड़े भी बरसाए जाते थे। क्रांतिकारी उस वक्त भी ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम’ के नारे लगाते थे। कई दिन तक पेड़ से उनका शव लटका रहता था। अंग्रेज इस तरह से सामूहिक फांसी देकर लोगों को आतंकित भी करते थे ताकि लोग देशभक्ति की डगर पर चलने से डरे।
उन्होंने बताया कि आते-जाते राहगीर केवल उसे देख सकते थे। उनका अंतिम संस्कार करने की भी हिम्मत नहीं होती थी। हां, एक मोहन बाबा नाम के संत थे, जो रात में चुपके से शहीदों के शव ले जाते थे और उसका गुपचुप तरीके से अंतिम संस्कार करते थे। यह काली नदी तट पर कुटी बनाकर एकांत में रहते थे। उन्हीं के नाम पर इस इलाके का नाम मोहनकुटी पड़ा।
संघर्ष से लेकर आजादी मिलने तक बुलंदशहर ने पूरे दम-खम से हिस्सा लिया। 10 मई 1857 को आजादी की प्रथम जंग शुरू हुई। पंडित नारायण शर्मा क्रांति का संदेश लेकर सबसे पहले अलीगढ़ से बुलंदशहर 10 मई को आए थे। उन्होंने गुप्त रूप से 9वीं पलटन को क्रांति की प्रेरणा दी थी। बुलंदशहर जिले में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल वीर गुर्जरों ने फूंका। दादरी और सिकंदराबाद के क्षेत्रों के गुर्जरों ने विदेशी शासन का प्रतीक डाक बंगला, तारघरों और सरकारी इमारतों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया था।
हरी अंगिरा ने बताया कि इस दौरान सरकारी संस्थाओं को लूटा गया और इन्हें आग लगा दी गई। एक बार 9वीं पैदल सेना के सैनिकों ने 46 क्रांतिकारी गुर्जरों को पकड़कर जेल में बंद कर दिया था। इससे क्रांति की आग और भड़क उठी। अंग्रेज विचलित हो उठे। क्रांति का दमन करने के लिए उन्होंने बरेली से मदद मांगी लेकिन नकारात्मक उत्तर मिला। रामपुर नवाब भी घुड़सवार नहीं भेज सके। सिरमूर बटालियन की दो फौजी टुकडि़यां भी न आ सकीं। जनरल डीवट को मेरठ का सरकारी खजाना भेजने के लिए कुछ यूरोपियन सैनिक भेजने का जो आग्रह किया था, वह भी पूर्ण नहीं न हो सका।
बुलंदशहर के अंग्रेज अधिकारियों में चारों तरफ निराशा छाई हुई थी। इसी बीच क्रांतिकारियों ने 21 मई 1857 को अलीगढ़ से बुलंदशहर तक इलाके को अंग्रेजी शासन से मुक्त करा दिया। हालांकि, 25 मई को अंग्रेजों ने फिर से कब्जा कर लिया। बुलंदशहर नगर से करीब आठ किलोमीटर दूर मालागढ़ के नवाब वलीदाद खां उस समय भी अपनी अलग सत्ता बनाए हुए थे। वह अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के काफी करीबी और वफादार थे। क्रांतिकारियों का साथ देने वह 14वां रिसाला झांसी की 12वीं पलटन और छह तोपों को लेकर दिल्ली से बुलंदशहर आ गए। 31 मई 1857 को उन्होंने बुलंदशहर पर अधिकार कर लिया और दिल्ली में सैनिकों ने बहादुर शाह जफर को सम्राट घोषित कर दिया। 31 मई से 28 सितंबर तक बुलंदशहर अंग्रेजों से मुक्त रहा। इस बीच स्थिति तेजी से बदलने लगी। आसपास के कई जमींदार अंग्रेजों से जा मिले। लड़ाई में नवाब की सेना का काफी नुकसान हो गया था। नवाब ने बहादुर शाह जफर से घुड़सवार, तोप,गोला-बारूद मांगे पर बादशाह के पास इतनी शक्ति कहां थी। अंग्रेज इस बीच मेरठ छावनी को मजबूत करने में जुट गए।
इतिहास के जानकार के अनुसार, 24 सितंबर को ले. कर्नल ग्रीथेड के नेतृत्व में विशाल सेना गाजियाबाद के रास्ते बुलंदशहर के लिए कूच कर गई। 28 सितंबर को बुलंदशहर में आजादी के मतवालों और अंग्रेजी सेना में घमासान युद्ध हुआ। इसमें क्रांतिकारी हार गए और अंग्रेजों ने फिर से बुलंदशहर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद अंग्रेज चुन-चुन कर क्रांतिकारियों का कत्ल करने लगे। 1857 से 1947 के दौरान यह कत्ले आम चौक बना रहा। यहां हजारों क्रांतिकारियों को यहां फांसी दी गई। अब काला आम की सूरत बदल गई है। आजादी के बाद लोगों ने सरेआम कत्ल के गवाह रहे इन पेड़ों को कटवा दिया। काला आम चौराहे के बीचों-बीच प्रशासन ने शहीद पार्क बनवा दिया। अब काला आम चौराहा बुलंदशहर का हृदय कहा जाता है।