काला आम का असली नाम नहीं जानते लोग ‘काला आम’ का असली नाम अधिकांश लोगों को शायद मालूम न हो. ‘काला आम’ का असली व पुराना नाम ‘कत्ले आम’ है। ‘कत्ले आम’ बदलते-बदलते ‘काला आम चौराहा’ बन गया और इसी नाम से लोगों की जुबान पर चढ़ गया। यहां पहले आम का विशाल बगीचा था। इसी आम के पेड़ों पर आजादी के मतवालों को लटका कर फांसी दी जाती थी। कभी-कभी अंग्रेजी फौज क्रांतिकारियों को उल्टा लटकाकर नीचे आग जला देते थे। उस समय की कहानी को बताने के लिए अब कोई आम का पेड़ तो नहीं बचा है, लेकिन काला आम पर बना शहीद इस्मारक आज भी लोगों को शहीदों की याद दिलाता है।
क्या कहते हैं इतिहास के जानकार- इतिहास के जानकार हरी अंगिरा बताते हैं कि इस आजादी के लिए भारत माता के बेटों ने कितनी यातनाएं व जुल्में सहा था, इसका हिसाब करना मुश्किल है। जालिमों ने जान भी ली तो तड़पा-तड़पा कर। वे उन पलों को याद भी नहीं करना चाहते। उन्होंने बताया कि भारत माता के लालों को पहले तो बर्बरता से कठोर यातना दी जाती थी। उसके बाद उन्हें फांसी पर लटकाया जाता था। साथ ही कोडे भी बरसाए जाते थे। क्रांतिकारी उस वक्त भी ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम’ के नारे लगाते रहते थे। कई दिनों तक पेड़ से उनकी लाश लटकी रहती थी। अंग्रेज इस तरह से सामूहिक फांसी देकर लोगों को आतंकित भी करते थे ताकि देशभक्ति की डगर पर चलने से पहले लोग सौ बार सोचें। कम से कम इतिहास तो यही बताता है कि अंग्रेजों का ये भयंकर जुल्म आज़ादी के मतवालों की दीवानगी रोकने में बिलकुल नाकाम रही.
शहीदों का अंतिम संस्कार करते थे मोहन बाबा सितम कोई इससे बड़ी इंतहा क्या हो सकती थी कि आते-जाते राहगीर केवल उन लाशों को देख सकते थे, लेकिन उनका अंतिम संस्कार करने की हिम्मत भी कोई नहीं कर पाता था। हां, एक मोहन बाबा नाम के संत थे जो रात में चुपके से शहीदों की लाश ले जाते थे और उसका गुपचुप तरीके से अंतिम संस्कार करते थे। यह काली नदी तट पर कुटी बनाकर एकांत में रहते थे। उन्ही के नाम पर इस इलाके का नाम मोहनकुटी पड़ा।
कत्ले आम से काला आम तक का सफर स्वतंत्रता संघर्ष से लेकर आजादी मिलने तक बुलंदशहर ने आजादी की लड़ाई में पूरे दम-खम से भाग लिया। 10 मई 1857 को देश की आजादी की प्रथम जंग शुरू हुई। क्रांति का सर्वप्रथम संदेश लेकर अलीगढ़ से बुलंदशहर पंडित नारायण शर्मा 10 मई को आए थे और उन्होंने गुप्त रूप से नवीं पलटन को क्रांति की प्रेरणा दी थी। बुलंदशहर जिले में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल वीर गूजरों ने फूंका। दादरी और सिकंदराबाद के क्षेत्रों के गुर्जरों ने विदेशी शासन का प्रतीक डाक बंगलों, तारघरों और सरकारी इमारतों को ध्वस्त करना प्रारंभ किया।
सरकारी संस्थाओं को लूटा गया और इन्हें आग लगा दी गई। एक बार नवीं पैदल सेना के सैनिकों ने 46 क्रांतिकारी गूजरों को पकड़ कर जेल में बंद कर दिया था। इससे क्रांति की आग और भड़क उठी। अंग्रेज विचलित हो उठे। क्रांति का दमन करने के लिए उन्होंने दमन करने के लिए बरेली से मदद मांगी लेकिन नकारात्मक उत्तर मिला। रामपुर नवाब भी घुड़सवार नहीं भेज सके। सिरमूर बटालियन की दो फौजी टुकड़ियां, जिनके आने की पूर्ण आशा थी, वे भी न आ सकीं। जनरल डीवट को मेरठ का सरकारी खजाना भेजने के लिए कुछ यूरोपियन सैनिक भेजने का जो आग्रह किया गया था, वह भी पूर्ण नहीं न हो सका।
बुलंदशहर के अंग्रेज अधिकारियों के लिए चारों तरफ निराशा छाई हुई थी। इसी बीच क्रांतिकारियों ने 21 मई 1857 को अलीगढ़ से बुलंदशहर तक इलाके को अंग्रेजी शासन से मुक्त करा दिया। हालांकि 25 मई को अंग्रेजों ने फिर से कब्जा कर लिया। बुलंदशहर नगर से करीब 8 किलोमीटर दूर मालागढ़ के नवाब वलीदाद खां उस समय भी अपनी अलग प्रभुसत्ता बनाए हुए थे और अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के काफी करीबी और वफादार थे। क्रांति का साथ देने वह वह दिल्ली से चलकर 14वां रिसाला झांसी की 12वीं पलटन और छह तोपों को लेकर बुलंदशहर आ गए। 31 मई 1857 को उन्होंने बुलंदशहर पर अधिकार कर लिया और दिल्ली में सैनिकों ने बहादुर शाह जफर को सम्राट घोषित कर दिया। 31 मई से 28 सितंबर तक बुलंदशहर अंग्रेजी दासता से मुक्त रहा। इस बीच स्थिति तेजी से बदलने लगी। आसपास के कई जमींदार अंग्रेजों से जा मिले। लड़ाई में नवाब की सेना का काफी नुकसान हो गया था। नवाब ने बहादुर शाह जफर से घुड़सवार, तोप, गोला-बारूद मांगे, पर बादशाह के पास इतनी शक्ति कहां थी। अंग्रेज इस बीच मेरठ छावनी को मजबूत करने में जुट गए।
24 सितंबर को ले. कर्नल ग्रीथेड के नेतृत्व में विशाल सेना गाजियाबाद के रास्ते बुलंदशहर को कूच की। 28 सितंबर को इस बुलंदशहर में आजादी के चाहने वाली सेना और अंग्रेजी सेना में घमासान युद्ध् हुआ। अंग्रेज विजयी हुए और बुलंदशहर पर फिर से अधिकार कर लिया। इसके बाद बुलंदशहर अंग्रेजों के आंख पर चढ़ गया और चुन-चुन कर क्रांतिकारियों का कत्ल किया जाने लगा। वर्ष 1857 से 1947 के दौरान काला आम कत्लगाह बना रहा। इस दौरान हजारों क्रांतिकारी को यहां फांसी दी गई। अब काला आम की सूरत बदल गई है। आजादी के बाद लोगों ने सरेआम कत्ल के गवाह रहे इन पेड़ों को कटवा दिया। ये पेड़ लोगों को अखरते थे। काला आम चौराहे के बीचोंबीच यहां प्रशासन द्वारा शहीद पार्क बनाया गया। अब काला आम चौराहा बुलंदशहर का हृदय कहा जाता है।