हिन्दी सिनेमा का दुर्भाग्य रहा है कि यहां हास्य अभिनेताओं के किरदार लिखने पर उस तरह मेहनत नहीं की जाती, जिस तरह नायक, नायिका और खलनायक के किरदारों पर की जाती है। महमूद ने एक बार कहा भी था- ‘निर्देशक और कहानीकार को हास्य की समझ नहीं होने के कारण वे सब कुछ हम पर छोड़ देते हैं और हमारी समझ में जो आता है, हम कर देते हैं।’ इसीलिए जगदीप, राजेंद्रनाथ, पेंटल, मुकरी, मोहन चोटी, केश्टो मुखर्जी, जॉनी लीवर जैसे अभिनेता फिल्म-दर-फिल्म हास्य के एक जैसे दायरे में घूमते रहे। चार्ली चैप्लिन, लॉरेल-हार्डी, बॉब हॉप, पीटर सेलर्स और मेल ब्रुक्स जैसी बुलंदी इनमें से किसी के हिस्से में नहीं आई।
नाटकों के मुकाबले कहीं अधिक जीवंत माध्यम होने के बावजूद ज्यादातर फिल्मों में हास्य को कहानी का हिस्सा नहीं बनाया गया। बीच-बीच में दर्शकों को हंसाने के लिए हास्य को पैबंद के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा। ऐसे प्रतिकूल माहौल में भी जगदीप दर्शकों को हंसी और ठहाकों की खुराक दे पाए, यही उनकी बड़ी उपलब्धि है।