बॉलीवुड में सलीम-जावेद के उदय से पहले लेखकों की हैसियत मुंशी जैसी थी। कई फिल्मी सेठ तो उन्हें मुंशी ही कहते थे। उनके लिखे संवाद ऐन वक्त पर बदल दिए जाते थे। कहानी को तोड़ा-मरोड़ा जाता था। चू-चपड़ करने पर फिल्म की प्रचार सामग्री से लेखक का नाम गायब हो जाता था। सलीम-जावेद ने इस परिपाटी को पूरी तरह बदल दिया। उनकी लिखी हुई ‘जंजीर’ को जब सिनेमाघरों में उतारने की तैयारियां चल रही थीं तो उन्होंने पाया कि फिल्म के पोस्टर्स-बैनर्स पर उनके नाम नहीं हैं। पूछने पर बताया गया कि इन पर लेखकों के नाम देने की परम्परा नहीं है। इससे गुस्साए जावेद अख्तर ने दो जीपें किराए पर लीं, चार मजदूरों को साथ लिया और पूरी मुम्बई में जहां-जहां ‘जंजीर’ के पोस्टर लगे थे, उन पर ‘लेखक : सलीम-जावेद’ का स्टीकर चिपका दिया। मेहनताने को लेकर भी इसी जोड़ी ने नई परम्परा की शुरुआत की। उस दौर में लेखकों को हीरो-हीरोइन के मेहनताने का आधा भी नहीं मिलता था। ‘दीवार’ के बाद फिल्मी सेठों को इस जोड़ी की यह शर्त माननी पड़ी कि उन्हें फिल्म के नायक के बराबर मेहनताना दिया जाएगा।
जाहिर है, जावेद अख्तर का बोलना उनकी जुझारू फितरत का हिस्सा है। फितरत में यह बैचेनी उनके हिस्से में आती है, जो प्रतिकूल हालात को बदलना चाहते हैं। जावेद अख्तर ने अपनी किताब ‘तरकश’ में लिखा है- ‘मैं जितना कर सकता हूं, उसका एक चौथाई भी अब तक नहीं किया और इस ख्याल की दी हुई बेचैनी जाती नहीं।’