8-9 महीने तक रहे थे परेशान
फिल्में के लिए काम करने की लालसा अनुराग को 1993 में मुंबई ले आई। वे जब मुंबई आए थे, तब उनके जेब में 5 से 6 हजार रुपये पड़े थे। शहर में पहले 8-9 महीने वह काफी परेशान रहे थे। इस दौरान उन्हें सड़कों पर भी सोना पड़ा और काम की खोज में भटकना भी पड़ा। तब कहीं जाकर उनको पृथ्वी थिएटर में काम मिला। इसके वाबजूद उनका पहला प्ले आज तक पूरा नहीं हो सका, क्योंकि उस दौरान डायरेक्टर का निधन हो गया था। खैर, यह तब की बात थी, अनुराग आज के दौर में एक जानेमाने फिल्म निर्देशक हैं। उनकी फिल्मों के लोग आज भी दीवाने हैं। वे ब्लैक फ्राइडे (2007), देव डी (2009), गुलाल (2009), गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012), बॉम्बे टॉकीज (2013), अग्ली (2014), बॉम्बे वेलवेट (2015), रमन राघव 2.0 (2016) जैसी फिल्मों के लिए जाने जाते हैं।
इस फिल्म के लिए अपने घर का किया था इस्तेमाल
अनुराग का बचपन कई शहरों में गुजरा है। उन्होंने अपनी पढ़ाई देहरादून और ग्वालियर में की और उनकी कुछ फिल्मों में इन शहरों की छाप भी नजर आती है, विशेष रूप से ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में, जहां उन्होंने उस घर का प्रयोग किया जहां उनका बचपन बीता। फिल्में देखने का शौक उन्हें बचपन से ही था, लेकिन बाद में उनका यह शौक छूट गया।
कॉलेज लाइफ में अनुराग ने फिर से अपने इस शौक को शुरू किया था। यहां वह एक थिएटर ग्रुप से भी जुड़े और जब वह एक ‘अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्ट’ में उपस्थित हुए, तो उनमें फिल्में बनाने की चेतना जगी और यहीं से उन्होंने अपने कॅरियर की शुरुआत की थी।