प्रमुख लक्षण –
प्रभावित हिस्से वाले पैर का छोटा होना, बच्चे का लचककर चलना, उकड़ू या आलती-पालती मारकर बैठने में तकलीफ, कूल्हे, घुटनों व जांघों में हमेशा दर्द।
चरणों में बढ़ती है बीमारी-
परथिस की बीमारी की शुरुआती स्टेज को नेक्रोसिस कहते हैं। इसमें बच्चे के कूल्हे में हल्का दर्द रहता है। लेकिन एक्स-रे में बीमारी पकड़ में नहीं आती इसलिए एमआरआई करानी पड़ती है।
इस चरण में फीमर के हैड से लगे सॉफ्ट बोन सेल नष्ट होने लगते हैं। हैड के बाहरी हिस्से में परिवर्तन आने लगता है। इसे फ्रेग्मेंटेशन कहते हैं। इस चरण में भी बीमारी का पता एक्स-रे से नहीं चल पाता है।
इसमें फेमोरल हैड की मजबूत हड्डियां भी गलने लगती हैं और रोग का पता एक्स-रे से लगाया जा सकता है। इसे रिऑसीफिकेशन कहते हैं।
इस अवस्था में फीमर का हैड कूल्हे के कप से बाहर आ जाता है और उसका आकार भी बदल जाता है। इसे हील्ड कहते हैं।
10000 में से एक बच्चे को होती है परथिस।
80% लड़के व 20% लड़कियों को होता है खतरा।
10% प्रभावितों के दोनों कूल्हे होते हैं प्रभावित
10% पीड़ितों में फैमिली हिस्ट्री।
ये हैं वजह –
इस रोग के सही कारणों का पता अभी तक नहीं चल पाया है। लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार इसके कुछ कारण सामने आए हैं-
कुछ मामलों में परथिस रोग की वजह आनुवांशिकता हो सकता है।
50% मरीजों में रक्त वाहिकाओं से जुड़ी समस्या से भी इस रोग की आशंका बढ़ती है।
चोट लगना व कूल्हे के जोड़ों में सूजन इसकी वजह हो सकती है। इससे फेमोरल हैड को ब्लड सप्लाई करने वाली नसें दबने लगती हैं और उस हिस्से को रक्त की पूर्ति बंद होने से वहां की कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं।
एक्स-रे और एमआरआई से जांच –
परथिस की जांच एक्स-रे, एमआरआई व बोन स्कैन से की जाती है। इसकी शुरुआती जांच के लिए एमआरआई की जाती है क्योंकि हड्डियों में थोड़ा बदलाव एक्स-रे में साफ नहीं दिखता। स्टेज-3 व 4 की बीमारी का पता लगाने के लिए एक्स-रे व बोन स्कैन कारगर होता है।
यह है इलाज –
शुरुआती अवस्था में ही यदि रोग की पहचान हो जाए तो सर्जरी की जरूरत नहीं पड़ती। दवाओं व एक्सरसाइज से इसका इलाज हो जाता है। लेकिन यदि रोग गंभीर हो जाए तो ऑपरेशन ही एकमात्र विकल्प रहता है। इस सर्जरी को ऑस्टियोटॉमी कहते हैं। इसमें विशेष प्रकार के स्क्रू को कूल्हे और फीमर के साथ ऐसे कसा जाता है जिससे फेमोरल हैड को ब्लड सप्लाई करने वाली नसें दोबारा से काम करने लगेंं। साथ ही बाहर की तरफ निकल आया फेमोरल हैड भी अंदर चला जाता है। सर्जरी के बाद बच्चे को तीन माह तक आराम की जरूरत पड़ती है।
सावधानी ही बचाव –
अक्सर बच्चे के लचककर चलने या कूल्हे में दर्द की शिकायत को घरवाले चोट समझकर गंभीरता से नहीं लेते हैं। उनकी इस लापरवाही के चलते रोग के अधिकतर मरीजों की पहचान शुरू में नहीं हो पाती और रोगी तीसरी या चौथी स्टेज में डॉक्टर के पास पहुंचता है। यदि बच्चा पैर या कूल्हें में दर्द की शिकायत करे तो माता-पिता उसे अस्थि रोग विशेषज्ञ को दिखाएं।